सातवाहन राजवंश साम्राज्य का इतिहास – Satavahana Dynasty in Hindi

Satavahana Vansh / सातवाहन वंश भारत का प्राचीन राजवंश था, जिसने केन्द्रीय दक्षिण भारत पर शासन किया था। भारतीय इतिहास में यह राजवंश ‘आन्ध्र वंश’ के नाम से भी विख्यात है। यह मौर्य वंशके पतन के बाद शक्तिशाली हुआ था। सातवाहन वंश का प्रारम्भिक राजा सिमुक था। इस वंश के राजाओं ने विदेशी आक्रमणकारियों से जमकर संघर्ष किया था। सातवाहन राजवंश की स्थापना पहली शताब्दी ई. में हुई थी।

सातवाहन राजवंश (साम्राज्य) का इतिहास Satavahana Dynasty in Hindi

सातवाहन राजवंश साम्राज्य का इतिहास – Satavahana Empire History in Hindi

सातवाहन कौन थे? उनका मूल स्थान कहाँ था? उनकी शासन तिथि क्या थी? जैसे प्रश्नों पर इतिहासकारों में मत-भेद है। प्राचीन धार्मिक तथा किंवदंतियों का साहित्य पर आधारित कुछ व्याख्याओं के अनुसार आंध्र जाति (जनजाति) का था और ‘दक्षिणापथ’ अर्थात दक्षिणी क्षेत्र में साम्राज्य की स्थापना करने वाला पहला दक्कनी वंश था। इस वंश का आरंभ ‘सिभुक’ अथवा ‘सिंधुक’ नामक व्यक्ति ने दक्षिण में कृष्णा और गोदावरी नदियों की घाटी में किया था। इस वश को ‘आंध्र राजवंश’ के नाम भी जाना जाता है। सातवाहन वंश के अनेक प्रतापी सम्राटों ने विदेशी शक आक्रान्ताओं के विरुद्ध भी अनुपम सफलता प्राप्त की थी। दक्षिणापथ के इन राजाओं का वृत्तान्त न केवल उनके सिक्कों और शिलालेखों से जाना जाता है, अपितु अनेक ऐसे साहित्यिक ग्रंथ भी उपलब्ध हैं, जिनसे इस राजवंश के कतिपय राजाओं के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं।

सातवाहन साम्राज्य मौर्य साम्राज्य की शक्ति कमज़ोर पड़ जाने के बाद अपने चरमोत्कर्ष पर पहँचुने लगा था। मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद प्रतिष्ठान (गोदावरी नदी के तट पर स्थित पैठन) को राजधानी बनाकर सातवाहन वंश ने अपनी शक्ति का उत्कर्ष प्रारम्भ किया। इस वंश का प्रथम राजा सिमुक (श्रीमुख) था, जिसने 210 ई. पू. के लगभग अपने स्वतंत्र राज्य की नींव डाली थी। तीसरी सदी ई.पू. के अन्तिम चरण में प्रारम्भ होकर सातवाहनों का यह स्वतंत्र राज्य चार सदी के लगभग तक क़ायम रहा। भारत के इतिहास में लगभग अन्य कोई राजवंश इतने दीर्घकाल तक अबाधित रूप से शासन नहीं कर सका। इस सुदीर्घ समय में सातवाहन राजाओं ने न केवल दक्षिणापथ में स्थायी रूप से शासन किया, अपितु उत्तरापथ पर आक्रमण कर कुछ समय के लिए मगध को भी अपने अधीन कर लिया। यही कारण है, कि पौराणिक अनुश्रुति में काण्व वंश के पश्चात आन्ध्र वंश के शासन का उल्लेख किया गया है।

इसका केन्द्र बिन्दु महाराष्ट्र में प्रतिष्ठान नामक स्थान था। इस राज्य को आंध्र सातवाहन राज्य भी कहा जाता है। जिसकी वजह से यह माना जाता है कि कदाचित इनका उदगम आंध्र प्रदेश से हुआ था, जहाँ से वे गोदावरी नदी के तट के साथ साथ पश्चिम की ओर बढ़े और मौर्य साम्राज्य के ह्रास का लाभ उठाते हुए स्वयं को वहाँ का शक्तिशाली बना लिया। किन्तु एक अन्य मत के अनुसार वे प्रारम्भ में पश्चिम दक्षिण के वासी थे तथा धीरे धीरे उन्होंने अपना प्रदेश पूर्वी तट तक विस्तृत कर लिया। अतः कालान्तर में उन्हें आंध्र कहा जाने लगा।

सातवाहन वंश के संस्थापक सिमुक ने 60 ई.पू. से 37 ई.पू. तक राज्य किया। उसके बाद उसका भाई कृष्ण और फिर कृष्ण का पुत्र सातकर्णी प्रथम गद्दी पर बैठा। इसी के शासनकाल में सातवाहन वंश को सबसे अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। वह, खारवेल का समकालीन था। उसने गोदावरी के तट पर प्रतिष्ठान नगर को अपनी राजधानी बनाया। इस वंश में कुल 27 शासक हुए। ये हिन्दू धर्म के अनुयायी थे। साथ ही इन्होंने बौद्ध और जैन विहारों को भी सहायता प्रदान की।

प्राचीन भारत में मौर्य वंश के अन्तर्गत पहली बार राजनैतिक एवं सांस्कृतिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया। बाद में चलकर सातवाहन वंश ने इस प्रयास को आगे बढ़ाया। यद्यपि इतिहासकार सातवाहनों को दक्कन में मौर्यों का उत्तराधिकारी हैं तथापि इस वंश के उदय को अशोक के बौद्ध राज्य के विरूद्ध सामान्य जैन तथा हिन्दु प्रक्रिया के रूप में भी समझा जाना चाहिए।

इस काल के विषय में जितनी जानकारी हमें प्राप्त हुई है उससे हमें सातवाहनों की विलक्षणता तथा विभिन्न क्षेत्रों में उनकी अद्वितिय गतिविधियों का ज्ञान होता है। यदि पुराणों के वक्तव्यों पर विशवास किया जाए तो दक्कन के इस साम्राज्य की सीमाएं उत्तर भारत तक फैली हुई थी। मगध इस साम्राज्य का एक हिस्सा था, दक्षिणी भारत में भी फैलाव था तथा पूर्वी से पश्चिमी समुन्द्र तक इसकी सीमाएं विस्तृत थी। उत्तर तथा दक्षिण भारत की मालव, भोज, पठनिक, रथिक, आन्ध्र, पारिन्द तथा द्राविड़ आदि विभिन्न प्रकार की प्रजातियों के समन्वय से इस साम्राज्य का निर्माण हुआ था तथा इस दृष्टि से क्षेत्रफल में मौर्य साम्राज्य से कम होते हुए भी सातवाहन साम्राज्य उससे कहीं अधिक सुगठित था। ये सातवाहनों द्वारा मध्य भारत तथा दक्कन में प्रदत्त लम्बे एवं शान्तिपूर्ण शासन काल का ही परिणाम था कि कला एवं स्थापत्य का विकास हुआ जिनके उदाहरण हम पश्चिम भारत की शिलाओं में तराशी हुई गुहाओं तथा पूर्वी भारत के स्तूपों एवं विहारों में पा सकते है।

इस काल में संस्कृति का भी अत्यधिक विकास हुआ तथा प्रकृत भाषा का आकर्षण राजदरबारों तक पहुँचा। यद्यपि सातवाहन राज्य एक हिन्दु साम्राज्य था तथपि उनके आधीन बौद्ध धर्म का अद्वितिय विकास हुआ। व्यापार, वाणिज्य एवं जल परिवहन के क्षेत्रों में भी अत्याधिक उन्नति हुई।

श्री यज्ञ सातवाहन वंश के इतिहास में अंतिम महत्त्वपूर्ण शासक थे। उन्होंने क्षत्रपों पर विजय प्राप्त की, लेकिन उनके उत्तराधिकारी, जिनके बारे में अधिकांश जानकारी पौराणिक वंशावलियों और सिक्कों से मिलती है, ने उनकी तुलना में सीमित क्षेत्र पर ही शासन किया बाद की मुद्राओं के जारी होने के स्थानीय स्वरूप और उनके पाए जाने वाले स्थानों से सातवाहन वंश के बाद के विखंडन का पता चलता है। आंध्र क्षेत्र पहले इक्ष्वाकु वंश के हाथों में और फिर पल्लव वंश के पास चला गया। पश्चिमी दक्कन के विभिन्न क्षेत्रों में नई स्थानीय शक्तियों, जैसे चुटु, अभीर और कुरू का उदय हुआ। बरार क्षेत्र में चौथी शताब्दी के आरंभ में वाकाटक वंश अपराजेय राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा। इस काल तक सातवाहन साम्राज्य का पुर्णतः विखंडन हो चुका था।

सातवाहन वंश के शासक – Satavahana Vansh in Hindi 

सातवाहन वंश के राजाओं के नाम निम्नलिखित हैं-

1). सिमुक

सिमुक (235 – 212 ई.पू) सातवाहन वंश का संस्थापक था तथा उसने 235 से लेकर 212ई.पू. तक लगभग 23 वर्षों तक शासन किया। यद्यपि उसके विषय में हमें अधिक जानकारी नही मिलती तथापि पुराणों से हमें यह ज्ञात होता है कि कण्व शासकों की शक्ति का नाश कर तथा बचे हुए शुंग मुखियाओं का दमन करके उसने सातवाहन वंश की नींव रखी। पुराणों में उसे सिमेक के अतिरिक्त शिशुक, सिन्धुक तथा शिप्रक आदि नामों से भी पुकारा गया है। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार सिमुक ने अपने शासन काल में जैन तथा बौद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाया, परन्तु अपने शासन काल के अन्तकाल में वह पथभ्रष्ट तथा क्रुर हो गया जिस कारणवश उसे पदच्युत कर उसकी हत्या कर दी।

2). कान्हा तथा कृष्ण (212 – 195 ई.पू)

सिमुक की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई कान्हा (कृष्ण) राजगद्दी पर बैठा। अपने 18 वर्षों के कार्यकाल में कान्हा ने साम्राज्य विसतार की नीति को अपनाया। नासिक के शिलालेख से यह पता चलता है कि कान्हा के समय में सातवाहन साम्राज्य पश्चिम में नासिक तक फैल गया था।

3). वेदश्री तथा सतश्री (अथवा शक्ति श्री)

शातकर्णी प्रथम की मृत्यु के पश्चात उसके दो अल्पव्यस्क पुत्र वेदश्री तथा सतश्री सिंहासन पर बैठे। परन्तु अल्पव्यस्क होने के कारण प्रशासन की सारी बागडोर उनकी मां नयनिका के हाथों में आ गई जिसने अपने पिता की सहायता से शासन चलाया। ऐसा प्रतीत होता है कि वेदश्री की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई तथा सतश्री ने उसके उत्तराधिकारी के रूप में शासन संभाला।

4). शातकर्णी द्वितिय

शातकर्णी द्वितिय ने लगभग 166 ई.पू से लेकर 111 ई.पू तक शासन किया। यह कदाचित वही शासक था जिसका वर्णन हीथीगुम्फा तथा भीलसा शिलालेखों में हुआ है। यह प्रतीत होता है कि इसके शासन काल में सातवाहनों ने पूर्वी मालवा को पुष्यमित्र शुंग के एक उत्तराधिकारी से छीन लिया। पुराणों के अनुसार शातकर्णी द्वितिय के पश्चात् लम्बोदर राजसिंहासन पर आसीन हुआ। लम्बोदर के पश्चात् उसका पुत्र अपीलक गद्दी पर बैठा।

5). हालहाल (20 – 24 ई.पू)

हाल सातवाहनों का अगला महत्पूर्ण शासक था। यद्यपि उसने केवल चार वर्ष ही शासन किया तथापि कुछ विषयों उसका शासन काल बहुत महत्वपूर्ण रहा। ऐसा माना जाता है कि यदि आरम्भिक सातवाहन शासकों में शातकर्णी प्रथम योद्धा के रूप में सबसे महान था तो हाल शांतिदूत के रूप में अग्रणी था। हाल साहित्यिक अभिरूचि भी रखता था तथा एक कवि सम्राट के रूप में प्रख्यात हुआ। उसके नाम का उल्लेख पुराण, लीलावती, सप्तशती, अभिधान चिन्तामणि आदि ग्रन्थों में हुआ है।

6). गौतमी पुत्रा श्री शातकर्णी (70 ई-95 ई) – Satakarni History in Hindi

लगभग आधी शताब्दी की उठापटक तथा शक शासकों के हाथों मानमर्दन के बाद गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी के नेतृत्व में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित कर लिया। गौतमी पुत्र श्री शातकर्णी सातवाहन वंश का सबसे महान शासक था जिसने लगभग 25 वर्षों तक शासन करते हुए न केवल अपने साम्राज्य की खोई प्रतिष्ठा को पुर्नस्थापित किया अपितु एक विशाल साम्राज्य की भी स्थापना की। गौतमी पुत्र के समय तथा उसकी विजयों के बारें में हमें उसकी माता गौतमी बालश्री के नासिक शिलालेखों से सम्पूर्ण जानकारी मिलती है।

सातवाहन साम्राज्य का इतिहासिक प्रमाण एक नजर में

  • अभिलेखों में जिन शासकों का उल्लेख है, सातवाहन के नाम से है। पुराणों में उन्हें आंध्रभृत्य कहकर भी सम्बोधित किया गया है। अतः कुछ विद्वानों ने इससे अर्थ निकाला कि वे आंध्र जो कभी किसी अन्य शक्ति के भृत्य अथवा सेवक थे।
  • पुराणों के प्रमाण के अनुसार आंध्रों के उदय की तिथि लगभग ई. पू. 30 कही जा सकती है। प्रथम सातवाहन शासक सिमुक था। उसे शुंग एवं काण्व शक्ति का नायक कहा गया है और उसका शासनकाल ई. पू. प्रथम शताब्दी का तृतीय चरण कहा जाता है।
  • वशिष्ठपुत्र पुलुमावि के अभिलेख और सिक्के आंध्र में भी पाए गए हैं और शिवश्री शतकर्णी (शासनकाल, लगभग 159-166 ई.) की जानकारी कृष्णा तथा गोदावरी ज़िलों में पाए गए सिक्कों से मिलती है। श्री यज्ञ शतकर्णी (शासनकाल, लगभग 17 4-203 ई.) के क्षेत्र के सिक्के कृष्ण और गोदावरी ज़िलों, मध्य प्रदेश के चंदा ज़िले, बरार, उत्तरी और सौराष्ट्र में भी पाए गए हैं।
  • शक क्षत्रप नहपान के जो सिक्के एवं अभिलेख नासिक प्रदेश के आसपास पाए गए हैं, वे प्रथम शताब्दी के अन्त अथवा दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में इस क्षेत्र पर शक आधिपत्य प्रकट करते हैं, किन्तु सातवाहनों ने अपने महानतम शासक गौतमीपुत्र शातकर्णी के नेतृत्व में पुनः अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर ली।
  • गौतमीपुत्र ने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाश कर सातवाहन कुल के गौरव की पुनःस्थापना की। उसने नहपान को हराकर उसके चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया। नासिक ज़िले में जोगलथेम्बी में सिक्कों का ढेर मिला है। इस एक ढेर में चाँदी के ऐसे बहुत से सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे और जो दुबारा गौतमीपुत्र की मुद्रा से अंकित हैं।

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