महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी | Mirza Ghalib History in Hindi

Mirza Ghalib / मिर्ज़ा ग़ालिब ऐसे शायर थे, जो आज भी हर किसी के जुबान में उनका नाम हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान (Mirza Asadullah Baig Khan) था। इनको उर्दू-फ़ारसी का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है। उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का ख़िताब से नवाज़ा गया हैं। इनके जीवन पर कई फिल्मे और धारवाहिक भी बन चुकी हैं। अभी हल ही में गूगल ने गूगल डूडल से सम्मान दिया।

महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी | Mirza Ghalib History in Hindi

मिर्ज़ा ग़ालिब का संक्षिप्त परिचय – Mirza Ghalib Biography in Hindi

पूरा नाम मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान ‘ग़ालिब’ (Mirza Asadullah Baig Khan)
जन्म दिनांक 27 दिसम्बर, 1797
जन्म स्थान आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु तिथि  15 फ़रवरी, 1869
मृत्यु स्थान  दिल्ली
पिता का नाम अब्दुल्ला बेग ग़ालिब
माता का नाम इज्ज़त निसा बेगम
पत्नी उमराव बेगम
कार्य क्षेत्र शायर, कवी
भाषा उर्दू और फ़ारसी भाषा
मुख्य रचनाएँ ‘दीवान-ए-ग़ालिब’, ‘उर्दू-ए-हिन्दी’, ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’, ‘नाम-ए-ग़ालिब’, ‘लतायफे गैबी’, ‘दुवपशे कावेयानी’ आदि।

ग़ालिब को भारत और पाकिस्तान में एक महत्वपूर्ण शायर, कवि के रूप में जाना जाता है। ग़ालिब नवाबी ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और मुग़ल दरबार में उंचे ओहदे पर थे। ग़ालिब (असद) नाम से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी रहे थे। उन्होंने बहादुरशाह जाफर के काल में हुए 1857 का गदर बहुत ही करीबी से देखा। ग़ालिब शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार एवं मित्रपराण स्वतंत्र चेता थे। जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। गलिब अपना हृदयग्राही व्यक्तित्व, मानव-प्रेम, सीधा स्पष्ट यथार्थ और इन सबसे अधिक, दार्शनिक दृष्टि लेकर साहित्य में आए।

शुरू में तो लोगों ने उनकी काल्पनिक शक्ति और मौलिकता की हंसी उड़ाई लेकिन बाद में उसे इतनी तेजी से बढ़ावा मिला कि शायरी की दुनिया का नजारा ही बदल गया। ग़ालिब आजीवन क़र्ज़ में डूबे रहे, लेकिन इन्होंने अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने दी। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी। ग़ालिब ने अपने 70 साल के जीवन में कई शायरिया लिखी है। अपनी हर रचना वो मिर्ज़ा या ग़ालिब नाम से लिखते थे, इसलिए उनका ये नाम प्रसिद्ध हुआ।

प्रारंभिक जीवन – Early Life of Mirza Ghalib in Hindi

मिर्जा गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। इनके पूर्वज तुर्की से थे, तर्सम खां के पुत्र कौकान बेग खां शाहआलम के शासन काल में, अपने बाप से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए। कौकान बेग गालिब के दादा थे। बाद में कौकान बेग लाहौर में ‘मुइनउल मुल्क’ के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मात्र-भाषा तुर्की होने की वजह से उन्हें हिन्दुस्तानी में बड़ी कठिनाई हुई। वह चन्द टूटे-फूटे शब्द बोल पाते थे। कुछ दिन बाद वे दिल्ली चले आए।

क़ौकान बेग के चार बेटे और तीन बेटियां थीं। इतिहास में बेटों में अब्दुल्लाबेग और नसरुल्लाबेगका जिक्र मिलता है। अब्दुल्लाबेग ही गालिब के पिता थे। अब्दुल्लाबेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा ‘बख़्तावर सिंह’ के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए।

इनका पालन पोषण का जिम्मा इनके चाचा पर आ गया, चाचा नसरुल्ला बेग खां ने गालिब का पालन-पोषण किया। नसरुल्ला बेग खां मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे। पर शीघ्र ही इनकी भी मृत्यु हो गई थी और ग़ालिब अपनी ननिहाल में आ गए। पिता स्वयं घर-जमाई की तरह सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी सन्तानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खुशहाल था। इसलिए ग़ालिब का बचपन अधिकतर वहीं पर बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफ़ी जायदाद थी।

मिर्ज़ा ग़ालिब की शिक्षा – Education of Mirza Ghalib

गालिब को बचपन से ही पतंग, शतरंज और जुए की आदत लग गयी थी, लेकिन दूसरी ओर उच्च कोटि के बुजुर्गों की संगत का लाभ मिला। मां पढ़ी-लिखी थी इसलिए उन्होंने गालिब को घर पर ही शिक्षा दी जिसकी वजह से उन्हें नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी। फारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान ‘मौलवी मोहम्मद मोवज्जम’ से प्राप्त की। ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। गालिब की ग्रहण शक्ति इतनी तेज़ थी कि वह न केवल जहूरी जैसे फारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे, बल्कि फारसी में गजलें भी लिखने लगें।

गालिब का लालन पालन जिस माहौल में हुआ वहां से उन्हें शायर बनने की प्रेरणा मिली। जिस मुहल्ले में गालिब रहते थे, वह (गुलाबखाना) उस जमाने में फारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था। वहां मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वगैरा फारसी के एक-से-एक विद्वान वहां रहते थे। शायरी की शुरुआत उन्होंने 10 साल की उम्र में ही कर दी थी लेकिन 25 साल की उम्र तक आते-आते वह बड़े शायर बन चुके थे।

मिर्ज़ा ग़ालिब का विवाह 

जब मिर्ज़ा ग़ालिब’ सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब ‘अहमदबख़्श ख़ाँ’ (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई ‘मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी ‘उमराव बेगम’ के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उमराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए।

ग़ालिब का दौर – Mirza Ghalib Life History 

मिर्ज़ा ग़ालिब पर दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं दोस्तों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाहीबख़्श ख़ाँ पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहाँ सूफ़ियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही ग़ालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। इसी से उन्हें शायर बनने का परवान चढ़ा।

मिर्ज़ा शाहब कुछ समय लाहौर, जयपुर में भी काम किया। 1850 में बहादुर शाह ज़फर की सत्ता में आने के बाद मिर्ज़ा ग़ालिब को मुख्य दरबारी बनाया गया। बादशाह को भी कविता में रूचि थी, 1854 में मिर्ज़ा इनको कविता सिखाने लगे। 1857 में जब ब्रिटिश राज से मुग़ल सेना की हार हुई, तब पूरा साम्राज्य नष्ट हो गया। मिर्ज़ा साहब को इस समय उनकी आय मिलना भी बंद हो गई थी।

ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा।

अपने जीवन काल में ही गालिब एक लोकप्रिय शायर के रूप में विख्यात हुई। 19वीं और 20वीं शताब्दी में उर्दू और फारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। गालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक कशिश अंदाज पाया जाता है। जो पढ़ने वाले के मन को छू लेता है।

मिर्ज़ा ‘ग़ालिब जिंदगी भर क़र्ज़ में दुबे रहे। इनके सात बच्चे भी हुए थे, लेकिन जितने भी हुए सबका इन्तिकाल हो गया। ‘आरिफ़’ (गोद लिया हुआ बेटा) को बेटे की तरह की पाला, उसका भी इन्तिकाल हो गया। पारिवारिक जीवन कभी सुखी एवं खुशहाल नहीं रहा। मानसिक संतुलन की कमी से ज़माने की शिकायत हमेशा रही। इसका दु:ख ही बना रहा कि समाज ने कभी उनकी योग्यता और प्रतिभा की सच्ची क़द्रदानी न की। फिर शराब जो किशोरावस्था में मुँह लगी थी, वह कभी नहीं छूटी। ग़दर के ज़माने में अर्थ-कष्ट, उसके बाद पेंशन की बन्दी। जब इनसे कुछ फुर्सत मिली तो ‘क़ातअ बुरहान’ के हंगामे ने इनके दिल में ऐसी उत्तेजना पैदा की कि बेचैन रखा। इन लगातार मुसीबतों से इनका स्वास्थ्य गिरता ही गया।

मिर्ज़ा ग़ालिब का इन्तिकाल – Mirza Ghalib Died

मिर्ज़ा ग़ालिब की इन्तिकाल (मृत्यु) 15 फ़रवरी, 1869 ई. को दोपहर ढले हुई थी। इस दिन एक ऐसी प्रतिभा का अन्त हो गया, जिसने इस देश में फ़ारसी काव्य को उच्चता प्रदान की और उर्दू गद्य-पद्य को परम्परा की शृंखलाओं से मुक्त कर एक नये साँचे में ढाला। मृत्यु के बाद इनके दोस्तों में इस बात को लेकर मतभेद हुआ कि शिया या सुन्नी, किस तरीका से इनका दफ़न हो। ग़ालिब शिया थे, इसमें किसी को शक की गुंजाइश न थी, पर नवाब ज़ियाउद्दीन और महमूद ख़ाँ ने सुन्नी तरीका से ही दफ़न कराया। पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे उसको ग़ालिब की हवेली कहा जाने लगा और बाद में उसे एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया।

जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई, उसमें मीर के साथ-साथ मिर्जा गालिब का सबसे अधिक योगदान था। मीर ने उर्दू को घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेमकी तल्लीनता और अनुभूति दी तो गालिब ने गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिए।

रचनाएँ – Mirza Ghalib Poet 

ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनकी अन्य रचनाएँ ‘लतायफे गैबी’, ‘दुरपशे कावेयानी’, ‘नामाए ग़ालिब’, ‘मेह्नीम’ आदि गद्य में हैं। फ़ारसी के कुलियात में फ़ारसी कविताओं का संग्रह हैं। उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

फिल्मे और धारावाहिक – Mirza Ghalib Movie & Series 

1954 में मिर्ज़ा ग़ालिब नाम की फिल्म सौरभ मोदी द्वारा बनाई गई थी। ये हिंदी व उर्दू में थी, जिसमें भारत भूषण मुख्य भूमिका में थे। फिल्म की कहानी मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन पर ही आधारित थी। दूरदर्शन का दौर शुरू होते ही, मिर्जा ग़ालिब सीरियल 1988 में आ गया था। इसमें नशरुद्दीन शाह मुख्य भूमिका में थे।

गूगल डूडल (गूगल द्वारा सम्मान) – Mirza Ghalib in Hindi

महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब का 27 दिसम्बर, 2017 को 220वाँ जन्मदिवस था। इस मौके पर गूगल ने एक खास डूडल बनाकर उनको समर्पित किया। गूगूल के इस डूडल में मिर्ज़ा हाथ में पेन और काग़ज़ के साथ दिख रहे हैं और उनके बैकग्राउंड में बनी इमारत मुग़लकालीन वास्तुकला के दर्शन करा रही है। गूगल ने अपने ब्लॉग में लिखा कि- “उनके छंद में उदासी सी दिखती है जो उनके उथल-पुथल और त्रासदी से भरी जिंदगी से निकल कर आई है, चाहे वो कम उम्र में अनाथ होना हो, या फिर अपने सात नवजात बच्चों को खोना या चाहे भारत में मुग़लों के हाथ से निकलती सत्ता से राजनीति में आई उथल-पुथल हो। उन्होंने वित्तीय कठिनाई झेली और उन्हें कभी नियमित सैलरी नहीं मिली। इन कठिनाइयों के बावजूद मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी परिस्थितियों को विवेक, बुद्धिमत्ता, जीवन के प्रति प्रेम से मोड़ दिया। उनकी उर्दू कविता और शायरी को उनके जीवन काल में सराहना नहीं मिली, लेकिन आज उनकी विरासत को काफी सराहा जाता है, विशेषकर उर्दू ग़ज़लों में उनकी श्रेष्ठता को।’

गालिब की शायरी – Mirza Ghalib Shayari in Hindi

“कर्ज की पीते थे मैं और समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फ़ाक़ामस्ती एक दिन”

“हाथो की लकीरों में मत जा ए ग़ालिब
किस्मत उनकी भी होती है जिनके हाथ नहीं होते”

“हजारों ख़्वाहिशें ऐसी, कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले”

“मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे”

“उन्हें देखकर चेहरे पर आती है रौनक,
और वो समझते है बीमार का हाल अच्छा है”

“मोहब्बत में नहीं है, फर्क जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते है जिस काफिर पर दम निकले”

“सैर कर दुनिया की ग़ालिब, जिन्दगिया फिर कहा
जिंदगानी गर रही तो, नौजवानिया फिर कहा”

“मैंने मोहब्बत के नशे में आकर उसे खुदा बना डाला
होश तब आया जब उसने कहा कि, खुदा किसी एक का नहीं होता”

“इस कदर तोडा है मुझे उसकी बेवफाई ने ए ग़ालिब
अब कोई अगर प्यार से भी देखे तो बिखर जाता हु”

“कितना खौफ होता है शाम के अंधेरो में
पूंछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते”


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