बहादुर शाह ज़फर का इतिहास | Bahadur Shah Zafar History in Hindi

Bahadur Shah Zafar in Hindi/ बहादुर शाह ज़फ़र, चार दशक से हिंदुस्तान पर राज करने वाले मुग़ल साम्राज्य के अंतिम बादशाह थे। इनका शासनकाल 1837-57 तक था। बहादुर शाह ज़फ़र एक कवि, संगीतकार व खुशनवीस थे और राजनीतिक नेता के बजाय सौंदर्यानुरागी व्यक्ति अधिक थे। उन्होंने 1857 की पहली भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेजा जहां उनकी मृत्यु हुई थी।

अंतिम मुग़ल बहादुर शाह ज़फर इतिहास | Bahadur Shah Zafar History In Hindiअंतिम मुग़ल बहादुर शाह ज़फर का इतिहास – Bahadur Shah Zafar ki History

मिर्ज़ा अबू ज़फर सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फर अपने पिता अकबर द्वितीय की 28 सितंबर 1837 को मृत्यु होने के बाद उत्तराधिकारी बने। वास्तव में, वह सफल होने के दृष्टिकोण से अपने पिता की मुख्य पसंद नहीं थे। अकबर द्वितीय अपनी पत्नी मुमताज बेगम के बेटे मिर्ज़ा जहांगीर को अपना उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना रहे थे। जफ़र अनुभवहीन होने के कारण सम्राट बनने पर अंग्रेजो को कोई परेशानी नहीं हुई।

सम्राट बनने के बाद उन्होंने अपने बेटे मिर्जा मुगल को अपने बलों के प्रमुख में कमांडर के रूप में भी नियुक्त किया। मिर्जा मुगल बहुत अनुभवहीन था, और वह सेना को प्रतिज्ञापूर्वक नहीं चला पाया। शहर का प्रशासन में अव्यवस्था थी और सेना में अराजकता फ़ैल गयी, जिसका लाभ उठाकर अंग्रेजो ने दिल्ली पर आक्रमण तेज कर दी।

हालाँकि एक सम्राट की दृष्टि से उन्होंने अपनी प्रजा के सभी धर्मों के लोगों के साथ अच्छा वर्ताव किया करते थे। न्होंने यह सुनिश्चित किया कि होली और दिवाली जैसे प्रमुख हिंदू त्योहारों को राजसभा में आयोजित किया जाना चाहिए। वह हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं के प्रति बहुत संवेदनशील थे। वे अपने नाम में “ज़फर” का उपयोग करते है जिसका अर्थ विजेता है। उन्होंने बहुत सी उर्दू कविताये और ग़ज़ल लिखी है। वे केवल नाममात्र के लिए ही शासक थे, एक मुग़ल शासक की तरह उनका नाम केवल इतिहास में लिखित था और उसके पास केवल दिल्ली (शाहजहाँबाद) पर शासन करने का ही अधिकार था।

प्रारम्भिक जीवन – Early Life of Bahadur Shah Zafar 

बहादुर शाह ज़फ़र का जन्म 24 अक्तूबर सन् 1775 ई. को दिल्ली में हुआ था। बहादुर शाह अकबर शाह द्वितीय और लालबाई के दूसरे पुत्र थे। उनकी मां लालबाई हिंदू परिवार से थीं। उन्होंने अपने दो शिक्षकों, इब्राहिम ज़ौक और असद उल्लाह खान गालिब से कविता की शिक्षा प्राप्त की। एक राजकुमार होने के नाते, उन्हें घुड़सवार सेना की कलाओं, तलवारबाजी, धनुष और तीर पर गोली चलाना और अग्नि-हथियारों के साथ प्रशिक्षित किया गया।

1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईट से ईट बजा दी। अंग्रेजों के ख़िलाफ़ भारतीय सैनिकों की बगावत को देख बहादुर शाह जफर का भी गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने अंग्रेजों को हिंदुस्तान से खदेड़ने का आह्वान कर डाला।

भारतीयों ने दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों को कड़ी शिकस्त दी। अपने शासनकाल के अधिकांश समय उनके पास वास्तविक सत्ता नहीं रही और वह अंग्रेज़ों पर आश्रित रहे। 1857 ई. में स्वतंत्रता संग्राम शुरू होने के समय बहादुर शाह 82 वर्ष के बूढे थे, और स्वयं निर्णय लेने की क्षमता को खो चुके थे। सितम्बर 1857 ई. में अंग्रेज़ों ने दुबारा दिल्ली पर क़ब्ज़ा जमा लिया और बहादुर शाह द्वितीय को गिरफ़्तार करके उन पर मुक़दमा चलाया गया तथा उन्हें रंगून निर्वासित कर दिया गया।

भारत में मुगलकाल के अंतिम बादशाह कहे जाने वाले जफर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान दिल्ली का बादशाह बनाया गया था। बादशाह बनते ही उन्होंने जो चंद आदेश दिए, उनमें से एक था गोहत्या पर रोक लगाना। इस आदेश से पता चलता है कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के कितने बड़े पक्षधर थे।

1857 के समय बहादुर शाह जफर एक ऐसी बड़ी हस्ती थे, जिनका बादशाह के तौर पर ही नहीं एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति के रूप में भी सभी सम्मान करते थे। इसीलिए बेहद स्वाभाविक था कि मेरठ से विद्रोह कर जो सैनिक दिल्ली पहुंचे उन्होंने सबसे पहले बहादुर शाह जफर को अपना बादशाह बनाया।

निजी जीवन – Bahadur Shah Zafar  Personal Life 

उनकी चार पत्नियाँ (बेगम) थी, बेगम अशरफ महल, बेगम अख्तर महल, बेगम जीनत महल और बेगम ताज महल। इन सभी बेगमो में से जीनत बेगम उनकी सबसे प्रिय थी। उनके बहुत से बेटे और बेटियाँ थी।

निधन – Bahadur Shah Zafar Death in Hindi

मुल्क से अंग्रेजों को भगाने का सपना लिए 7 नवंबर 1862 को सुबह 5 बजे उनका निधन हो गया। बहादुर शाह ज़फ़र की मृत्यु 86 वर्ष की अवस्था में रंगून (वर्तमान यांगून), बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में हुई थी। उन्हें रंगून में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफनाया गया। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है।

उस समय जफर के अंतिम संस्कार की देखरेख कर रहे ब्रिटिश अधिकारी डेविस ने भी लिखा है कि जफर को दफनाते वक्त कोई 100 लोग वहां मौजूद थे। जफर की मौत के 132 साल बाद साल 1991 में एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए की गई खुदाई के दौरान एक भूमिगत कब्र का पता चला. 3.5 फुट की गहराई में बादशाह जफर की निशानी और अवशेष मिले, जिसकी जांच के बाद यह पुष्टि हुई की वह जफर की ही हैं। इसके बाद उनकी दरगाह 132 साल बाद 1994 में बनी।

लोगों के दिल में उनके लिए कितना सम्मान था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में जहां कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है। बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया है।” जिस दिन बहादुरशाह ज़फ़र का निधन हुआ उसी दिन उनके दो बेटों और पोते को भी गिरफ़्तार करके गोली मार दी गई। इस प्रकार बादशाह बाबर ने जिस मुग़ल वंश की स्थापना भारत में की थी, उसका अंत हो गया।

ज़फर महल – Jafar Mahal

ज़फर महल मुघलो के अंतिम शासक बहादुर शाह ज़फर द्वारा निर्मित एक अंतिम मुघल ईमारत है। ज़फर महल भारत के दिल्ली में स्थापित किया गया है। अकबर द्वितीय, बहादुर शाह जफ़र द्वारा ज़फर महल के प्रवेश द्वार का निर्माण 19 वी शताब्दी के मध्यकाल में किया गया था। ज़फर महल दिल्ली के मेहरुली में बना हुआ है। मेहरुली एक रमणीय स्थल है जहाँ लोग शिकार करने और साथ ही पिकनिक मनाने के लिए भी आते है। पहले से ही प्रसिद्ध मेहरुली में ज़फर ने ज़फर महल और दरगाह बनाकर इसकी सुन्दरता और बढ़ा दी। प्रवेश द्वारा के पास बना गुम्बद तक़रीबन 15 वी शताब्दी में बनवाया गया था और महल के बाकी भाग पश्चिमी कला के अनुसार बनाये गए है।

प्रसिद्ध कवि –

बहादुर शाह ज़फ़र सिर्फ एक देशभक्त मुग़ल बादशाह ही नहीं बल्कि उर्दू के प्रसिद्ध कवि भी थे। उन्होंने बहुत सी मशहूर उर्दू कविताएं लिखीं, जिनमें से काफ़ी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बगावत के समय मची उथल-पुथल के दौरान खो गई या नष्ट हो गई। उनके द्वारा उर्दू में लिखी गई पंक्तियां भी काफ़ी मशहूर हैं।

वे मिर्जा गालिब, ज़ौक़, मोमिन और दाग़ जैसे अपने समय के प्रतिष्ठित और मशहूर उर्दू कवियों के एक महान कद्रदान थे। उनकी अधिकांश उर्दू गजलें 1857 के युद्ध के दौरान खो गयी थीं। उनमें से जो बची थी, उन्हें संकलित किया और कुल्लियात-ऐ-जफर नाम दिया गया।

हिन्दुस्तान से बाहर रंगून में भी उनकी उर्दू कविताओं का जलवा जारी रहा। वहां उन्हें हर वक्त हिंदुस्तान की फ़िक्र रही। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वह अपने जीवन की अंतिम सांस हिंदुस्तान में ही लें और वहीं उन्हें दफनाया जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।

ज़फ़र की एक कविता – Bahadur Shah Zafar Poem in Hindi

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।

बुलबुल को बागबां से न सैयाद से गिला,
किस्मत में कैद लिखी थी फसल-ए-बहार में।

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में।

एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।

दिन ज़िन्दगी खत्म हुए शाम हो गई,
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में।

कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥


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