अजमेर शरीफ़ दरगाह का इतिहास, जानकारी | Ajmer Sharif Dargah History in Hindi

Ajmer Sharif Dargah – भारत में ऐसे अनेक तीर्थ हैं, जो सभी धर्मों के लिए आस्था का केंद्र हैं। ऐसा ही एक तीर्थ है अजमेर शरीफ़, जहां प्रसिद्ध सूफ़ी संत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है। कहा जाता है की अजमेर शरीफ दरगाह (Ajmer Sharif Dargah) से कोई भी आज तक खाली हाथ नहीं लौटा, यहां जो भी मन्नत माँगने से पूरी हो जाती है। यह दरगाह भारत के राजस्थान राज्य के अजमेर नगर में स्थित हैं।

अजमेर शरीफ़ दरगाह का इतिहास और जानकारी | Ajmer Sharif Dargah In Hindi

अजमेर शरीफ़ दरगाह की जानकारी – Ajmer Sharif Dargah Information in Hindi

अरावली की पहाड़ियों से घिरा अजमेर बहुत ही ख़ूबसूरत जगह है। लोग यहां अत्यंत श्रद्धा के साथ मन्नत मांगने आते हैं और मुराद पूरी होने पर ख्वाजा साहिब का शुक्राना अदा करने आते हैं। ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती एक सूफ़ी संत और इस्लामिक विद्वान् थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में सूफियो को चिश्ती आदेश के परिचय व स्थापना में अपना जीवन व्यतीत किया।

ख्वाजा साहिब ने अपना पूरा जीवन गरीबों और दलितों की सेवा में समर्पित कर दिया। वे हमेशा ईश्वर से यही दुआ किया करते थे कि वह सभी भक्तों का दुख-दर्द उन्हें दे दे तथा उनके जीवन को खुशियों से भर दे। यह स्थान सभी धर्मों के लोगों के लिए पूजनीय है और प्रतिवर्ष यहाँ लाखों तीर्थयात्री आते हैं। चाँदी के दरवाज़े वाली इस दरगाह का निर्माण कई चरणों में हुआ जहाँ संत की मूल कब्र है जो संगमरमर की बनी है और इसके चारों ओर की रेलिंग चाँदी की है।

ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की जीवनी – Khawaja moin ud din chishti biography 

ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती 536 हिजरी (1141 ई.) में ख़ुरासान प्रांत के ‘सन्जर’ नामक गाँव में पैदा हुए थे। ‘सन्जर’ कन्धार से उत्तर की स्थित है। आज भी वह गाँव मौजूद है। कई लोग इसको ‘सजिस्तान’ भी कहते है। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने ही भारत में ‘चिश्ती सम्प्रदाय’ का प्रचार-प्रसार अपने सद्गुरु ख़्वाजा उस्मान हारुनी के दिशा-निर्देशों पर किया किया। इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के संरक्षण में हुई। जिस समय ख़्वाजा मुईनुद्दीन मात्र 15 वर्ष के थे, तभी इनके पिता का देहांत हो गया। उत्तराधिकार में इन्हें मात्र एक बाग़ (फलो का बगीचा) की प्राप्ति हुई थी। इसी की आय से जीवन निर्वाह होता था। कहा जाता हैं बचपन में चिश्ती अन्य बच्चो से अलग थे। वे फकीरों की संगत प्रार्थना और ध्यान में अपने आप को व्यस्त रखते थे।

संयोग या दैवयोग से इनके बगीचा में एक बार हज़रत इब्राहिम कंदोजी का शुभ आगमन हुआ। इनकी आवभगत से वह अत्यंत प्रभावित हुए। हज़रत इब्राहिम कंदोजी ने इनके सिर पर अपना पवित्र हाथ फेरा तथा शुभाशीष दी। इसके बाद इनके हृदय में नवचेतना का संचार हुआ। उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति बेच दी व उससे प्राप्त धन गरीबो में बाट दिया सब कुछ त्याग कर वे ज्ञान की प्राप्ति में निकल पढ़े।

सर्वप्रथम ये एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ हुए, परन्तु राज कर्मचारियों द्वारा यह कहने पर कि यहाँ तो राजा की ऊँटनियाँ बैठती हैं, ये वहाँ से नम्रतापूर्वक उठ गए। राजा के ऊँट-ऊँटनियाँ वहाँ से उठ ही न पाए तो कर्मचारियों ने अपनी गलती के लिए उनसे क्षमा-याचना की। इसके बाद इनका निवास एक तालाब के किनारे पर बना दिया गया, जहाँ पर ख़्वाजा मुईनुद्दीन दिन-रात निरंतर साधना में निमग्र रहते थे और उच्च ज्ञान प्राप्त किया। उस्मान हरूनी के मोईनुद्दीन चिश्ती मुरीद बन गए। चिश्ती समरकंद, बूखारा गए गुरु के साथ रह कर धर्म की शिक्षा ली। मुस्लिम रीती-रिवाज व धर्म के बारे में जानकारी हासिल की। वे उस्मान हरूनी के अनुयायी बन गए मध्य पूर्व में मक्का मदीना तक चिश्ती गए। ख़्वाजा मुईनुद्दीन ने अनेकों हज पैदल ही किए।

यह माना जाता है कि ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती सन 1195 ई में मदीना से भारत आए थे। वे ऐसे समय में भारत आए, जब मुहम्मद ग़ोरी की फौज अजमेर के राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान से पराजित होकर वापस ग़ज़नी की ओर भाग रही थी। भागती हुई सेना के सिपाहियों ने ख़्वाजा मुईनुद्दीन से कहा कि आप आगे न जाएँ। आगे जाने पर आपके लिए ख़तरा पैदा हो सकता है, चूंकि मुहम्मद ग़ोरी की पराजय हुई है। किंतु ख़्वाजा मुईनुद्दीन नहीं माने। वह कहने लगे- “चूंकि तुम लोग तलवार के सहारे दिल्ली गए थे, इसलिए वापस आ रहे हो। मगर मैं अल्लाह की ओर से मोहब्बत का संदेश लेकर जा रहा हूँ।” थोड़ा समय दिल्ली रुके उसके बाद लाहौर चले गए, काफी समय लाहौर रहने के बाद मुइज्ज़ अल- दिन मुहम्मद के साथ अजमेर आए और वही बस गए।

जब संत की आयु 89 वर्ष की थी तब उन्होंने प्रार्थना करने के लिए स्वयं को 6 दिन तक कमरे में बंद कर लिया था और अपने नश्वर शरीर को एकांत में छोड़ दिया था। बाद में उस स्थान पर उनके चाहने वालों ने मकबरा बना दिया, जिसे आजकल ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती का मकबरा कहते है।

अजमेर शरीफ़ दरगाह का इतिहास – Ajmer Sharif Dargah History in Hindi

प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार मांडू के सुल्तान ग़यासुद्दीन ख़िलजी ने सन 1465 में यहाँ दरगाह और गुम्बद का निर्माण करवाया था। बाद के समय में बादशाह अकबर के शासन काल में भी दरगाह का बहुत विकास हुआ। दरगाह अजमेर शरीफ़ का मुख्य द्वार निज़ाम गेट कहलाता है क्योंकि इसका निर्माण 1911 में हैदराबाद स्टेट के उस समय के निज़ाम, मीर उस्मान अली ख़ाँ ने करवाया था। उसके बाद मुग़ल सम्राट शाह जहाँ द्वारा खड़ा किया गया शाहजहानी दरवाज़ा आता है।

दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चांदी का कटघरा है। इस कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक खूबसूरत महफिल खाना भी है, जहां कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं। महान सूफ़ी संत की याद में यहाँ हर साल एक एक उर्स भरता है जो 6 दिन तक चलता है।

उन्होंने एक अलग दुनिया का निर्माण किया। उनकी धर्म की दुसरे शब्दों में व्याख्या ऐसी थी की मनुष्य एक शिष्य है, जो अपने आप में नदी जैसी उदारता और सूर्य जैसा स्नेह होना चाहिए। उनके अनुसार भक्ति में सबसे ज्यादा शक्ति है। वे हमेशा ईश्वर से दुआ करते थे कि वह उनके सभी भक्तों का दुख-दर्द उन्हें दे दे तथा उनके जीवन को खुशियों से भर दे। उन्होंने कभी भी अपने उपदेश किसी किताब में नहीं लिखे और न ही उनके किसी शिष्य ने उन शिक्षाओं को संकलित किया। ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने हमेशा राजशाही, लोभ और मोह आदि का विरोध किया।

उन्होंने कहा कि- “अपने आचरण को नदी की तरह पावन व पवित्र बनाओ तथा किसी भी तरह से इसे दूषित न होने देना चाहिए। सभी धर्मों को एक-दूसरे का आदर करना चाहिए और धार्मिक सहिष्णुता रखनी चाहिए। ग़रीब पर हमेशा अपनी करुणा दिखानी चाहिए तथा यथा संभव उसकी मदद करनी चाहिए। संसार में ऐसे लोग हमेशा पूजे जाते हैं और मानवता की मिसाल क़ायम करते हैं।”

अजमेर शरीफ दरगाह के बारे में रोचक बाते – Interesting Facts About Ajmer Sharif Dargah in Hindi

1). चिश्ती दरगाह अजमेर शरीफ दरगाह या अजमेर शरीफ के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस दरगाह को भरात सरकार दरगाह ख्वाजा साहेब एक्ट 1955 के तहत मान्यता प्राप्त है भारत सरकार ने दरगाह के लिए समिति बनाई है जो की दरगाह में आने वाले चढ़ावे का हिसाब रखती है।

2). दरगाह अजमेर शरीफ एक ऐसा पाक-शफ्फाक नाम है जिसे सुनने मात्र से ही रूहानी सुकून मिलता है। अजमेर शरीफ में हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह की मजार की जियारत कर दरूर-ओ-फातेहा पढ़ने की चाहत हर ख्वाजा के चाहने वाले की होती है।

3). दरगाह अजमेर शरीफ का भारत में बड़ा महत्व है. खास बात यह भी है कि ख्वाजा पर हर धर्म के लोगों का विश्वास है। यहां आने वाले जायरीन चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, ख्वाजा के दर पर दस्तक देने के बाद उनके जहन में सिर्फ अकीदा ही बाकी रहता है।

4). भारत में इस्लाम के साथ ही सूफी मत की शुरुआत हुई थी. सूफी संत एक ईश्वरवाद पर विश्वास रखते थे। यह सभी धार्मिक आडंबरों से ऊपर अल्लाह को अपना सब कुछ समर्पित कर देते थे। ये धार्मिक सहिष्णुता, उदारवाद, प्रेम और भाईचारे पर बल देते थे. इन्हीं में से एक थे हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीरन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह।

5). एक बार बादशाह अकबर ने दरगाह शरीफ में दुआ मांगी कि उन्हें पुत्र-रत्न प्राप्त होगा तो वे पैदल चलकर जियारत पेश करने आएंगे। सलीम को पुत्र के रूप में प्राप्त करने के बाद अकबर ने आगरा से 437 किमी. दूर अजमेर शरीफ तक की यात्रा नंगे पैर चलकर की थी।

6). इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया हो या बराक ओबामा या बॉलीवुड के सितारे, कई लोग ख्वाजा साहिब के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं।


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