Shaniwar Wada Pune / शनिवार वाड़ा महाराष्ट्र के पुणे शहर में स्थित एक किला है। इस किला की नीव बाजीराव प्रथम ने शनिवार के दिन 10 जनवरी 1730 में रखी थी, इसीलिए इसका नाम भी शनिवाड़ा पड़ा। यह फोर्ट अपनी भव्यता और ऐतिहासिकता के लिए प्रसिद्ध है। यह किला को इंडिया के टॉप मोस्ट हॉन्टेड प्लेस में शामिल किया जाता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि उन्हें अंदर से एक आवाज सुनाई देती है, जो मदद के लिए कहती है। ये आवाज एक राजकुमार की है और आसपास के लोगों को उसके रोने की आवाज सुनाई देती है।
शनिवार वाड़ा की जानकारी – Shaniwar Wada Pune, in Hindi
शनिवार वाड़ा एक ऐतिहासिक किलाबंदी है। इसका निर्माण 18 वी शताब्दी में मराठा साम्राज्य पर शासन करने वाले पेशवाओं ने करवाया था। उस समय इस महल के निर्माण में 16 हजार एक सौ 10 रुपए की लागत आई थी। इस महल में एक साथ एक हजार से ज्यादा लोग रह सकते थे। शनिवारवाड़ा में कुल 5 दरवाजे हैं। पहले गेट को दिल्ली दरवाजा, दूसरे को मस्तानी दरवाजा, तीसरे को खिड़की दरवाजा, चौथे को नारायण दरवाजा और पांचवे को गणेश दरवाजा के नाम से जाना जाता है।
1818 तक यह पेशावाओं के अधिकार में रहा। 1828 में इस महल में आग लगी और महल का सबसे बड़ा हिस्सा आग की चपेट में आ गया। वो आग कैसे लगी थी, अभी तक ये रहस्य है। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकती है। स्थानीय लोग कहते हैं कि इस महल से अब भी अमावस की रात एक दर्द भरी आवाज आती है जो बचाओ-बचाओ पुकारती है।
यह आवाज उस सख्स कि है जिसकी हत्या इस महल में का दी गई थी। कहते हैं हत्या के बाद उसके शव को नदी में बहा दिया गया था। यह शख्स कोई और नहीं बल्कि मराठा साम्राज्य के पांचवे पेशवा नारायण राव की हैं जो मात्र 16 साल की उम्र में पेशवा बने थे, जिनकी हत्या 18 साल में राजनितिक षड्यंत्र के तहत कर दिया गया था।
किले का इतिहास – Shaniwar Wada History in Hindi
शनिवार वाडा असल में मराठा साम्राज्य के पेशवा की सात मंजिला महल है। कहा जाता है की उस समय शनिवार वाडा इतिहास की सबसे कलात्मक और आकर्षक रचनाओ में से एक था। इस किले का निर्माण पहले केवल पत्थरो का उपयोग करके ही किया जा रहा था।
शनिवार वाडा किला का निर्माण राजस्थान के ठेकेदारो ने किया था जिन्हे की काम पूर्ण होने के बाद पेशवा ने नाईक की उपाधि से नवाज़ा था। इस किले में लगी टीक की लकड़ी जुन्नार के जंगलो से, पत्थर चिंचवाड़ की खदानों से तथा चुना जेजुरी की खदानों से लाया गया था।
इसके बाद पेशवाओ ने शनिवार वाडा में और भी बहुत सी चीजो का निर्माण किया, जैसे की वाटर फाउंटेन और जलाशय। यह वाडा पुणे के क़स्बा पेठ में मुला-मुठा नदी के पास स्थित है।
शनिवार वाडा का निर्माण कार्य पूरा होने के बाद इसपर ब्रिटिश सेना ने आक्रमण भी किया था, जिससे महल को बहुत हानि पहुंची थी। वर्तमान में शनिवार वाडा का केवल मुख्य बाहरी भाग ही बचा हुआ है जिसे हम आज भी पुणे शहर में जाकर देख सकते है।
जून 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपनी गद्दी त्यागकर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सर जॉन मल्कोल्म को सौप दी थी और राजनीतिक निर्वासन कर वे कानपूर के पास चले गये, जो वर्तमान भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में आता है।
इस महल में 27 फ़रवरी 1828 को अज्ञात कारणों से भयंकर आग लगी थी आग को पूरी तरह बुझाने में सात दिन लग गए थे। इस से किले परिसर में बनी कई इमारते पूरी तरह नष्ट हो गई थी। उनके अब केवल अवशेष बचे है। अब यदि हम इस किले की संरचना की बात करे तो किले में प्रवेश करने के लिए पांच दरवाज़े है।
नारायण राव की हत्या और उनकी आत्मा Shaniwar Wada (Narayan Rao) Story in Hindi
ऐसी मान्यता है कि बाजीराव के बाद इस महल में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर शुरु हो गया था। इसी राजनीतिक दांव-पेंच और सत्ता की लालच में 18 साल की उम्र में नारायण राव की हत्या इस महल में कर दी गई थी। कहते हैं आज भी नारायण राव अपने चाचा राघोबा को पुकारते हैं ‘काका माला बचावा’। नारायण राव की हत्या क्यों और किस कारण से हुई उसकी एक बड़ी दर्दनाक कहानी है।
पेशवा नाना साहेब के तीन पुत्र थे विशव राव, महादेव राव और नारायण राव। अपने दोनों भाईयों की मृत्यु के बाद नारायण राव को पेशवा बनाया गया। नारायण राव को पेशवा तो बना दिया गया लेकिन उम्र कम होने की वजह से रघुनाथराव यानी राघोबा को उनका संरक्षक बनाया गया और शासन संचालन का अधिकार भी राघोबा के हाथों में ही रहा। लेकिन इस व्यवस्था से राघोबा और उनकी पत्नी आनंदीबाई खुश नहीं थी वह सत्ता पर पूर्ण अधिकार चाहते थे।
राघोबा की इस हसरत की भनक नारायण राव को लग गई और दोनों पक्ष के बीच दूरियां बढ़ने लगी। इस तरह दोनों एक दूसरे को शक की नज़र से देखते थे। हालात तब और भी विकट हो गए जब दोनों के सलाहकारों ने दोनों को एक दूसरे के विरुद्ध भड़काया। इसका परिणाम यह हुआ की नारायण राव ने अपने काका को घर में ही नज़रबंद करवा दिया।
इससे आनंदीबाई और भी ज्यादा नाराज़ हो गई। उधर राघोबा ने नारायण राव को काबू में करने का एक उपाय सोचा। उनके साम्राज्य में ही भीलों का एक शिकारी कबीला रहता था जो की गार्दी कहलाते थे। वो बहुत ही मारक लड़ाके थे। नारायण राव के साथ उनके सम्बन्ध खराब थे लेकिन राघोबा को वो पसंद करते थे। इसी का फायदा उठाते हुए राघोबा ने उनके मुखिया सुमेर सिंह गार्दी को एक पत्र भेजा जिसमे उन्होंने लिखा ‘नारायण राव ला धारा’ जिसका मतलब था नारायण राव को बंदी बनाओ। लेकिन आनंदीबाई को यहाँ एक अच्छा मौक़ा नज़र आया और उसने पत्र का एक अक्षर बदल दिया और कर दिया ‘नारायण राव ला मारा’ जिसका मतलब था नारायण राव को मार दो।
पत्र मिलते ही गार्दियों के एक समूह ने रात को घात लगाकर महल पर हमला कर दिया। वो रास्ते की हर बाधा को हटाते हुए नारायण राव के कक्ष की और बढे। जब नारायण राव ने देखा की गार्दी हथियार लेकर खून बहाते हुए उसकी तरफ आ रहे है तो वो अपनी जान बचाने के लिए अपने काका के कक्ष की और “काका माला वचाव” (काका मुझे बचाओ) कहते हुए भागा। लेकिन वह पहुँचने से पहले ही वो पकड़ा गया और उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए गए।
हालाँकि इतिहासकारो में थोड़ा सा मतभेद है कुछ उस बात का समर्थन करते है जो की हमने ऊपर लिखी जबकि कुछ का कहना है की नारायण राव अपने काका के सामने अपनी जान बचाने की गुहार करता रहा पर उसके काका ने कुछ नहीं किया और गार्दी ने राघोबा की आँखों के सामने उसके टुकड़े टुकड़े कर दिए। लाश के टुकड़ो को बर्तन में भरकर रात को ही महल से बाहर ले जाकर नदी में बहा दिया गया।
स्थानीय लोग कहते हैं कि अमावस्या की रात अब भी एक दर्द भरी रात आवाज आती है, जो बचाओ-बचाओं पुकारती है। ये आवाज उसी राजकुमार की है, जिसकी हत्या करवाई गई थी।
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