Khan Abdul Ghaffar Khan / ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान, जिन्हें “सीमान्त गांधी”, “बच्चा खाँ” तथा “बादशाह खान” के नाम से भी पुकारा जाता है, जो ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानी थे। वे एक राजनितिक और आध्यात्मिक नेता थे, जो अपनी अहिंसक विरोध के लिए जाने जाते थे।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का परिचय – Khan Abdul Ghaffar Khan Biography in Hindi
नाम | ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (Khan Abdul Ghaffar Khan) |
पिता का नाम | बैरम ख़ान |
जन्म दिनांक | 6 फ़रवरी, 1890 ई. |
कार्य क्षेत्र | स्वतंत्रता सेनानी |
राष्ट्रीयता | ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान) |
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ब्रिटिश सरकार से आजादी के लिए संघर्षरत ‘स्वतंत्र पख्तूनिस्तान’ आंदोलन के प्रणेता थे। महात्मा गाँधी की तरह उनके अहिंसात्मक आन्दोलन के लिए जाना जाता है। वो महात्मा गाँधी के परम मित्र थे और ब्रिटिश इंडिया में उन्हें ‘फ्रंटियर गाँधी’ के नाम से भी संबोधित किया जाता था। अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही अत्यधिक दृढ़ स्वभाव के व्यक्ति हैं, इसलिये अफ़ग़ानों ने उन्हें ‘बाचा ख़ान’ के रूप में पुकारना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक सामाजिक संगठन प्रारंभ किया जिसकी सफलता ने अंग्रेजी हुकुमत को बेचैन कर दिया। उन्होंने सरहद पर रहने वाले उन पठानों को अहिंसा का रास्ता दिखाया, जिन्हें इतिहास में हमेशा ‘लड़ाके’ के तौर पर दर्शाया गया था। नमक सत्याग्रह के दौरान 23 अप्रैल 1930 को गफ्फार खां के गिरफ्तारी के बाद खुदाई खिदमतगारों ने पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में एक जुलूस निकाला। अंग्रेजी प्रशासन ने उन पर गोलियां बरसाने का हुक्म दे दिया और देखते ही देहते 200 से 250 लोग मारे गए पर प्रतिहिंसा नहीं हुई। ये कमाल गफ्फार खां के करिश्माई नेतृत्व का था।
इस महान नेता ने सदैव ‘मुस्लिम लीग’ द्वारा देश के विभाजन के मांग का विरोध किया और जब अंततः कांग्रेस ने विभाजन को स्वीकार कर लिया तब वो बहुत निराश हुए और कहा, ‘आप लोगों ने हमें भेड़ियों के सामने फ़ेंक दिया।” विभाजन के बाद उन्होंने पाकिस्तान के साथ रहने का निर्णय लिया और पाकिस्तान के अन्दर ही ‘पख्तूनिस्तान’ नामक एक स्वायत्त प्रशासनिक इकाई की मांग करते रहे। पाकिस्तान सरकार ने उन पर हमेशा ही शक किया जिसके कारण पाकिस्तान में उनका जीवन अक्सर जेल में ही गुजरा। फिर भी वे अपनी मूल संस्कृति से विमुख नहीं हुए। इसी वज़ह से वह भारत के प्रति अत्यधिक स्नेह भाव रखते थे।
प्रारंभिक जीवन –
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फ़रवरी, 1890 ई. को पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत वर्तमान पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा ‘अब्दुल्ला ख़ान’ बहुत ही सत्यवादी और जुझारू स्वभाव थे। उनके पिता ‘बैरम ख़ान’ शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। साथ ही उनके पिता बहराम इलाके के एक समृद्ध ज़मींदार थे और स्थानीय पठानों के विरोध के बावजूद उन्होंने अपने दोनों बेटों को अंग्रेजों द्वारा संचालित ‘मिशन स्कूल’ में पढ़ाया। गफ्फार पढ़ाई में होशियार थे और मिशन स्कूल में उन्होंने शिक्षा के महत्त्व को समझा। हाई स्कूल के अंतिम वर्ष में उन्हें अंग्रेजी सरकार के अंतर्गत पश्तून सैनिकों के एक विशेष दस्ते में शामिल होने का प्रस्ताव मिला पर सोच-विचार के बाद उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता था कि इस ‘विशेष दस्ते’ के अधिकारियों को भी उन्ही के देश में द्वीतीय श्रेणी का नागरिक समझा जाता था।
इसके बाद गफ्फार खान ने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ाई की और आगे की पढाई के लिए अपने भाई की तरह लन्दन जाना चाहते थे पर उनकी मां इसके खिलाफ थीं इसलिए उन्होंने यह विचार त्याग दिया और अपने पिता के साथ खेती-बाड़ी का कार्य करने लगे।
सरहद के पार आज भी अपने लोगों की स्वाधीनता के लिए संघर्षरत ‘सीमांत गांधी’ के नाम से विख्यात ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ाँ प्रारम्भ से ही अंग्रेजों के ख़िलाफ़ थे।
स्वाधीनता आन्दोलन –
सन 1910 में 20 साल की उम्र में खान ने अपने घरेलु स्थान उत्मंजाई में एक मदरसे की शुरुवात की। 1911 में तुरंग्जाई के स्वतंत्रता सेनानी हाजी साहिब के स्वतंत्रता अभियान में शामिल हो गये। अंग्रेजी हुकुमत ने उनके मदरसे को सन 1915 में प्रतिबंधित कर दिया। सन 1915 से लेकर 1918 तक उन्होंने पश्तूनों को जागृत करने के लिए लगभग 500 गांवों की यात्रा की जिसके बाद उन्हें ‘बादशाह खान’ का नाम दिया गया।
बाचा खान ने अंग्रेजों के विरुद्ध लगभग सारे विद्रोहों को असफल होते देखा था अतः उन्हें लगा कि सामाजिक चेतना के द्वारा ही पश्तूनों में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसके बाद बादशाह खान ने एक के बाद एक कई सामाजिक संगठनों की स्थापना की। इसी की वजह से 1921 में अंजुमन-ए-इस्लाह-ए-अफघानिया और 1927 में पश्तून असेंबली की स्थापना की गयी।
खुदाई खिदमतगार
मई 1928 में मक्का मदीना से वापिस आने के बाद उन्होंने पश्तून भाषा की स्थापना की। और फिर अंततः नवम्बर 1929 में खान ने खुदाई खिदमतगार (भगवान के दास) अभियान की स्थापना की। जसकी सफलता के चलते ब्रिटिश अधिकारी उनका और उनके समर्थको का विरोध करने लगे। भारतीय स्वतंत्रता अभियान में उन्होंने जमकर ब्रिटिश राज का सामना किया था।
बादशाह खान के करिश्माई नेतृत्व का कमाल था कि संगठन में लगभग 100000 सदस्य शामिल हो गए और उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से अंग्रेजी पुलिस और सेना का विरोध करना शुरू कर दिया। खुदाई खिदमतगारों ने हड़तालों, राजनैतिक संगठन और अहिंसात्मक प्रतिरोध के माध्यम से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ सफलता हासिल की और ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ में एक प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गये। बादशाह के भाई डॉ खान अब्दुल जब्बर खान ने संगठन के राजनैतिक खंड की जिम्मेदारी संभाली और 1920 के दशक के अंतिम सालों से लेकर सन 1947 तक प्रान्त के मुख्यमंत्री रहे।
किस्सा ख्वानी नरसंहार –
1930 ई. के नमक सत्याग्रह के दौरान गफ्फार खान को 23 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके स्वरुप खुदाई खिदमतगारों का एक जत्था विरोध प्रदर्शन के लिए पेशावर के किस्सा ख्वानी बाज़ार में इकठ्ठा हुआ। अंग्रेजों ने निहत्थी और अहिंसात्मक भीड़ पर मशीनगनों से गोलियां चलाने का आदेश दिया जिसमे लगभग 200 -250 लोग मारे गए। इसी दौरान गढ़वाल राइफल रेजिमेंट के दो प्लाटूनों ने निहत्थी और अहिंसात्मक भीड़ पर गोलियां चलाने से इनकार कर दिया जिसके परिणामस्वरूप उनका कोर्ट मार्शल किया गया और कठोर सजा सुनाई गयी।
गफ्फार खान और कांग्रेस –
गफ्फार खान और महात्मा गाँधी के बीच एक आध्यात्मिक स्तर की मित्रता थी। दोनों को एक दूसरे के प्रति अपार स्नेह और सम्मान था और दोनों ने सन 1947 तक मिल-जुलकर काम किया। गफ्फार खान के खुदाई खिदमतगार और कांग्रेस (जो स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व कर रही थी) ने स्वाधीनता के संघर्ष में एक-दूसरे का साथ निभाया। बादशाह खान खुद कांग्रेस के सदस्य बन गए थे। कई मौकों पर जब कांग्रेस गांधीजी के विचारों से सहमत नहीं होती तब गफ्फार खान गाँधी के साथ खड़े दिखते। वो कई सालों तक कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य रहे पर उन्होंने अध्यक्ष बनने से इनकार कर दिया।
गफ्फार खान महिला अधिकारों और अहिंसा के पुरजोर समर्थक थे। उन्हें एक ऐसे समाज से भी घोर सम्मान और प्रतिष्ठा मिली जो अपने ‘लड़ाकू’ प्रवित्ति के लिए जाना जाता था। उन्होंने ताउम्र अहिंसा में अपना विश्वास कायम रखा। उनके इन सिद्धांतों के कारण भारत में उन्हें ‘फ्रंटियर गाँधी’ के नाम से पुकारा जाता है।
भारत का विभाजन –
खान ने भारत के विभाजन की मांग करने वाली ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का जमकर विरोध किया था। लेकिन जब भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस ने खुदाई खिदमतगार के नेताओ से बातचीत किए बिना ही विभाजन की अनुमति जाहिर कर दी, तो उन्हें बहुत बुरा लगा। उन्होंने गाँधी और कांग्रेस के अन्य नेताओं से कहा, ‘आप लोगों ने हमे भेड़ियों के सामने फेंक दिया’।
सन 1947 में जब ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ को पाकिस्तान में शामिल होने के मसले पर जनमत संग्रह कराया गया तब कांग्रेस और गफ्फार खान ने इसके विरोध किया और जनमत संग्रह में शामिल होने से इनकार कर दिया जिसके परिणामस्वरुप ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ ने बहुमत से पाकिस्तान में शामिल होने के पक्ष में मत दिया।
पकिस्तान और गफ्फार खान –
हालांकि देश के विभाजन से गफ्फार खान किसी प्रकार से भी सहमत नहीं थे पर बंटवारे के बाद उन्होंने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया और देश के प्रति अपनी निष्ठा भी प्रकट की लेकिन पाकिस्तानी हुकुमत को उनकी निष्ठा पर सदैव संदेह रहा। विडम्बना ऐसे रही की इस महान देशभक्त और स्वतंत्राता सेनानी की इच्छाओं को पाकिस्तान की सरकार ने अनसुना कर दिया और सरकार खान एवं उनके समर्थकों को पाकिस्तान की विकास और प्रगति में बाधा मानते रहे।
उनकी निष्ठा पर संदेह करनेवाली तमाम सरकारों ने उन्हें या तो घर में नजरबन्द रखा या जेल में रखा। इलाज के लिए वो कुछ समय के लिए इंग्लैंड गए और फिर वहां से अफगानिस्तान चले गए। लगभग 8 सालों तक निर्वासित जीवन बिताने के बाद 1972 में वो वापस लौटे पर बेनजीर भुट्टो सरकार ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया।
भारत का बँटवारा होने पर उनका संबंध भारत से टूट सा गया किंतु वह भारत के विभाजन से किसी प्रकार सहमत न थे। पाकिस्तान से उनकी विचारधारा सर्वथा भिन्न थी। पाकिस्तान के विरुद्ध ‘स्वतंत्र पख़्तूनिस्तान आंदोलन’ आजीवन चलाते रहे। 1985 के ‘कांग्रेस शताब्दी समारोह’ में वे भारत ए थे प्रमुख आकर्षण का केंद्र थे। 1970 में वे भारत भर में घूमे। 1972 में वह पाकिस्तान लौटे।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को वर्ष 1987 में भारत सरकार की ओर से भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
निजी जीवन –
1912 में उन्होंने मेहरक़न्दा से शादी की, जो यार मोहम्मद खान की बेटी थी। उनके दो बेटे, एक अब्दुल घनी खान और दुसरे अब्दुल वाली खान और एक बेटी सरदारों थी। दुर्भाग्यवश उनके पत्नी की मृत्यु 1918 में ही हो गयी।
इसके बाद 1920 में उन्होंने उनकी पहली पत्नी की की बहन नम्बता से शादी कर ली। उन्हें एक बेटी और एक बेटा भी है। लेकिन 1926 में फिर से उनके जीवन में दुःखद घटना घटी और घर की सीढियों से गिरते हुए उनकी दूसरी पत्नी की भी मृत्यु हो गयी। इसके बाद युवा होने के बावजूद घफ्फार ने दोबारा शादी करने से इंकार कर दिया।
निधन –
खान अब्दुल गफ्फार खान का निधन सन 1988 में पेशावर में हुआ जहाँ उन्हें घर में नजरबन्द रखा गया था। उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें उनके जलालाबाद (अफगानिस्तान) स्थित घर में दफनाया गया। उनके अंतिम संस्कार में 2 लाख से भी ज्यादा लोग शामिल हुए जो उनके महान व्यक्तित्व का परिचायक था।
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