महादेव गोविन्द रानाडे की जीवनी | Mahadev Govind Ranade Biography in Hindi

Mahadev Govind Ranade / महादेव गोविन्द रानाडे भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान् और न्यायविद थे। उन्हें “महाराष्ट्र का सुकरात” कहा जाता है। साथ ही वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे, जो बॉम्बे लेजिस्लेटिव कौंसिल के सदस्य रहते हुए बहुत से पदों पर काम कर चुके है। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। प्रार्थना समाज, आर्य समाज और ब्रह्म समाज का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। 

महादेव गोविन्द रानाडे की जीवनी | Mahadev Govind Ranade Biography in Hindi

महादेव गोविंद रानाडे का परिचय – Mahadev Govind Ranade

नाम महादेव गोविन्द रानाडे (Mahadev Govind Ranade)
पिता का नाम गोविंद अमृत रानाडे
जन्म दिनांक 18 जनवरी, 1842 ई.
शिक्षा एल.एल.बी.
कार्य क्षेत्र प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान् और न्यायविद
राष्ट्रीयता भारतीय

महादेव गोविंद रानाडे को अनेक क्षेत्रों में कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था। इससे जो समस्याएँ उत्पन्न हुईं, उससे उन्हें पीड़ाओं को भी सहना पड़ा। समाज सुधार की रस्सी पर चलने जैसा कठिन काम उन्होंने किया था। ब्रिटिश सरकार उनके हर काम पर नज़र रख रही थी। परंपराओं को तोड़ने के कारण वे जनता के भी कोप भाजन बने थे। गोविंद रानाडे ‘दक्कन एजुकेशनल सोसायटी’ के संस्थापकों में से एक थे। रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे। इसके अलावा वे केंद्र में फाइनेंस समिति के सदस्य और बॉम्बे हाई कोर्ट के जज भी थे।

प्रारंभिक जीवन –

गोविंद रानाडे का जन्म 18 जनवरी, 1842 ई. में पुणे में हुआ था। उनके पिता का नाम ‘गोविंद अमृत रानाडे’ था। उन्होंने अपने बचपन का अधिकतर समय कोल्हापुर में गुजारा जहाँ उनके पिता मंत्री थे। पुणे में आरंभिक शिक्षा पाने के बाद रानाडे ने ग्यारह वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ी शिक्षा आरंभ की। 1859 ई. में उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय से प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और 21 मेधावी विद्यार्थियों में उनका अध्ययन मूल्यांकन शामिल था।

उन्होंने बॉम्बे के एल्फिन्सटन कॉलेज से पढ़ाई प्रारंभ की। यह कॉलेज बॉम्बे विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था और महादेव गोविन्द रानाडे इसके प्रथम बी.ए. (1862) और प्रथम एल.एल.बी. (1866) बैच का हिस्सा थे। वे बी.ए. और एल.एल.बी. की कक्षा में प्रथम स्थान पर रहे। प्रसिद्ध समाज सुधारक और विद्वान आर.जी. भंडारकर उनके सहपाठी थे। बाद में रानाडे ने एम.ए. किया और एक बार फिर अपने कक्षा में प्रथम स्थान पर रहे।

बाद में इसी कॉलेज ‘एलफिंस्टन कॉलेज’ में वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक नियुक्त हुए थे। एल.एल.बी. पास करने के बाद वे उप-न्यायाधीश नियुक्त किए गए। वे निर्भीकतापूर्वक निर्णय देने के लिए प्रसिद्ध थे। शिक्षा प्रसार में उनकी रुचि देखकर अंग्रेज़ों को अपने लिए संकट का अनुभव होने लगा था, और यही कारण था कि उन्होंने रानाडे का स्थानांतरण शहर से बाहर एक परगने में कर दिया। रानाडे को सज्जानता की सज़ा भुगतनी पड़ी थी। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना। वे जब लोकसेवा की ओर मुड़े तो उन्होंने देश में अपने ढंग के महाविद्यालय स्थापित करने के लिए विशेष प्रयास किए। वे आधुनिक शिक्षा के हिमायती तो थे ही, लेकिन भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप।

करियर –

सन 1871 में उन्हें ‘बॉम्बे स्माल काजेज कोर्ट’ का चौथा न्यायाधीश, सन 1873 में पूना का प्रथम श्रेणी सह-न्यायाधीश, सन 1884 में पूना ‘स्माल काजेज कोर्ट’ का न्यायाधीश और अंततः सन 1893 में बॉम्बे उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनाया गया। सन 1885 से लेकर बॉम्बे उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने तक वे बॉम्बे विधान परिषद् में रहे।

सन 1897 में रानाडे को सरकार ने एक वित्त समित्ति का सदस्य बनाया। उनकी इस सेवा के लिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘कम्पैनियन ऑफ़ द आर्डर ऑफ़ द इंडियन एम्पायर’ से नवाज़ा। उन्होंने ‘डेक्कन अग्रिकल्चरिस्ट्स ऐक्ट’ के तहत विशेष न्यायाधीश के तौर पर भी कार्य किया। वे बॉम्बे विश्वविद्यालय में डीन इन आर्ट्स भी रहे और विद्यार्थियों के जरूरतों को पूरी तरह से समझा। मराठी भाषा के विद्वान के तौर पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा के उपयोगी पुस्तकों और कार्यों को भारतीय भाषाओँ में अनुवाद पर जोर दिया। उन्होंने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम को भी भारतीय भाषाओँ में छापने पर जोर दिया।

राजनीतिक गतिविधि –

महादेव गोविंद रानाडे ने ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना का समर्थन किया था और 1885 ई. के उसके प्रथम मुंबई अधिवेशन में भाग भी लिया। राजनीतिक सम्मेलनों के साथ सामाजिक सम्मेलनों के आयोजन का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि मनुष्य की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक प्रगति एक दूसरे पर आश्रित है। अत: ऐसा व्यापक सुधारवादी आंदोलन होना चाहिए, जो मनुष्य की चतुर्मुखी उन्नति में सहायक हो। वे सामाजिक सुधार के लिए केवल पुरानी रूढ़ियों को तोड़ना पर्याप्त नहीं मानते थे। उनका कहना था कि रचनात्मक कार्य से ही यह संभव हो सकता है। वे स्वदेशी के समर्थक थे और देश में निर्मित वस्तुओं के उपयोग पर बल देते थे। देश की एकता उनके लिए सर्वोपरी थी। उन्होंने कहा था कि- “प्रत्येक भारतवासी को यह समझना चाहिए कि पहले मैं भारतीय हूँ और बाद में हिन्दू, ईसाई, पारसी, मुसलमान आदि कुछ और।

इंसानियत की मिशाल –

एक दिन रानाडे अपने घर से न्यायालय जाने के लिए निकले। उन्होंने देखा कि एक वृद्ध महिला ने लकड़ियों का बोझ उठा रखा है। रानाडे को उस वृद्धा के शरीर की अंतिम अवस्था पर तरस आ गया और उन्होंने उससे पूछा- “क्या मैं आपकी कुछ सेवा कर सकता हूँ?” इस पर वृद्धा ने कहा- “लकड़ियों का यह गट्ठर मेरे सिर से उतार दो।” रानाडे ने गट्ठर नीचे उतार दिया। तभी रानाडे को पहचानने वाले उनके एक पड़ोसी ने उस वृद्ध महिला से कहा कि आप नहीं जानतीं, यह सेशन न्यायाधीश है और तुम इनसे ऐसा काम करवा रही हो। वृद्धा के कुछ भी बोलने के पहले ही रानाडे ने जवाब दिया- “मैं न्यायाधीश होने से पहले एक मनुष्य भी हूँ।”

सामाजिक –

रानाडे सामाजिक कांफ्रेंस अभियान के संस्थापक थे, जिसका समर्थन उन्होंने मृत्यु तक किया था। बाल विवाह, महिलाओ का सर मुंडवाना और शादी में होने वाला अतिरिक्त खर्च और सामाजिक भेदभाव इन सभी समस्याओ का विरोध उन्होंने जीवनभर किया और हमेशा इन प्रथाओ में सुधार करने की कोशिश करते रहे। 1861 में विधवा वैवाहिक संस्था के संस्थापक सदस्यों में रानाडे एक थे। रानाडे हमेशा से ही अंधविश्वास की आलोचना करते थे। उन्होंने सभी धर्मो को भी इन अंधविश्वास को ना मानने की सलाह दी थी।

निजी जीवन –

राणाडे एक कट्टर चितपावन ब्राह्मण परिवार से थे। उनका जन्म निंफाड़ में हुआ और आरम्भिक काल उन्होंने कोल्हापुर में बिताया, जहां उनके पिता मंत्री थे। उनकी प्रथम पत्नी की मृत्यु के बाद, उनके सुधारकमित्र चाहते थे, कि वे एक विधवा से विवाह कर, उसका उद्धार करें। परन्तु, उन्होंने अपने परिवार का मान रखते हुए, एक बालिका, रामाबाई राणाडे से विवाह किया, जिसे बाद में उन्होंने शिक्षित भी किया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने उनके शैक्षिक एवं सामाजिक सुधर कार्यों को चलाया। उनके कोई संतान नहीं थी।

देश की भरपूर सेवा करने वाले और समाज को नई राहें दिखाने वाले गोविंद रानाडे का निधन 16 जनवरी, 1901 ई. में हुआ।

रचनाएँ –

रानाडे प्रकांड विद्वान् थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी –

रानाडे ने भारतीय अर्थव्यवस्था और मराठा इतिहास पर पुस्तकें लिखीं। उनका मानना था कि बड़े उद्योगों के स्थापना से ही देश का आर्थिक विकास हो सकता है और पश्चिमी शिक्षा आधुनिक भारत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।

  • रानाडे, महादेव गोविंद, राइज ऑफ़ दी मराठा पॉवर (1990), पुनर्प्रकाशन (1999)
  • बिपन चन्द्र, रानाडे के आर्थिक लेख, ज्ञान बुक्स प्राइवेट लिमिटेड।

अन्य रचनाये –

  • विधवा पुनर्विवाह
  • मालगुजारी क़ानून
  • राजा राममोहन राय की जीवनी
  • मराठों का उत्कर्ष
  • धार्मिक एवं सामाजिक सुधार

प्रसिद्धि –

जी मराठी टेलीविज़न चैनल पर ‘उंच माझा झोका’ नामक सीरियल में रमाबाई और महादेवराव के जीवन और उनके द्वारा महिलाओ के हक्क के प्रति की जानी लढाई को दर्शाया गया है। जिसे मार्च 2012 में टेलीकास्ट किया गया था। इस सीरियल की प्रशंसा महाराष्ट्र में सभी भागो में की गयी थी। यह टेलीविज़न सीरियल रमाबाई रानाडे की किताब ‘आमच्या आयुष्यातील काही आठवणी’ पर आधारित थी। इस किताब में न्यायविद रानाडे को “महादेव” की जगह “माधव” नाम दिया गया था।


औरअधिक लेख –

Please Note : – Mahadev Govind Ranade Biography & Life History In Hindi मे दी गयी Information अच्छी लगी हो तो कृपया हमारा फ़ेसबुक (Facebook) पेज लाइक करे या कोई टिप्पणी (Comments) हो तो नीचे  Comment Box मे करे।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *