गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य-वंश का इतिहास | Gurjar Pratihar Vansh History in Hindi

Gurjar Pratihar Vansh in Hindi / गुर्जर प्रतिहार 8वीं से 10वीं शताब्दी के मध्य उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से पर राज करने वाला राजवंश था। नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंश की स्थापना की थी। मिहिरभोज इस राजवंश का सबसे महान राजा था। इतिहासकारों का मानना है कि इन प्रतिहारों ने भारत को अरब हमलों से लगभग 300 साल तक बचाया था, इसलिए प्रतिहार (रक्षक) नाम पड़ा। प्रतिहारों के अभिलेखों में उन्हें श्रीराम के अनुज लक्ष्मण का वंशज बताया गया है, जो श्रीराम के लिए प्रतिहार (द्वारपाल) का कार्य करता था।

गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य-वंश का इतिहास | Gurjar Pratihar Vansh History in Hindiगुर्जर प्रतिहार वंश का इतिहास – Gurjar Pratihar Vansh History in Hindi

गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई. में की थी। इसे ‘हरिशचन्द्र’ के नाम से भी जाना जाता था। इस साम्राज्य की उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई थी। नागभट्ट ने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा सिद्ध किया। अधिकतर गुर्जर सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अंकित सूर्यदेव की कलाकृर्तिया भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है। आज भी राजस्थान में गुर्जर सम्मान से मिहिर कहे जाते हैं, जिसका अर्थ सूर्य होता है।

गुर्जर प्रतिहार राजवंश की एक शाखा, जो मालव में आठवीं शताब्दी के प्रथम भाग से शासन करती रही थी, इसका सबसे प्राचीन ज्ञात सम्राट् नागभट प्रथम था, जो अपने मालव राज्य को सिंध के अरबों के आक्रमणों से बचाने में सफल हुआ था। नागभट प्रथम दक्षिण के राष्ट्रकूट दंतिदुर्ग से पराजित हुआ, जिसने अपनी विजय के पश्चात् उज्जैन में हिरण्यगर्भदान करवाया। आठवीं शताब्दी के अंतिम भाग में इस वंश के राजा वत्सराज ने गुर्जरदेश राज्य को जीत लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। उसके पश्चात् उसने उत्तर भारत पर अपनी प्रभुता स्थापित करने के लिये बंगाल के पालों से अपनी तलवार आजमाई। उसने गंगा और यमुना के बीच के मैदान में पाल धर्मपाल को परास्त कर दिया, और अपने सामंत शार्कभरी के चहमाण दुर्लभराज की सहायता से बंगाल पर विजय प्राप्त की, और इसी प्रकार वह गंगा के डेल्टा तक पहुँच गया। वत्सराज का पुत्र तथा उत्तराधिकारी नागभट द्वितीय, सन् 800 ई. के लगभग गद्दी पर बैठा था। नागभट द्वितीय का पौत्र गुर्जर सम्राट मिहिर भोज इस वंश का सबसे महान् सम्राट् समझा जाता है उसके राज्यकाल में प्रतिहार राज्य पंजाब और गुजरात तक फैल गया।

नागभट्ट द्वितीय तथा राष्ट्रकूट शासक गोपाल तृतीय से पराजित होने के बाद प्रतिहार साम्राज्य का लगभग विघटन हो गया था। भोज ने धीरे धीरे फिर साम्राज्य की स्थापना की। उसने कन्नौज पर 836 ई. तक पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया और जो गुर्जर प्रतिहार वंश के अंत तक उसकी राजधानी बना रहा। राजा भोज ने गुर्जरत्रा (गुजरात क्षेत्र) (गुर्जरो से रक्षित देश) या गुर्जर-भूमि (राजस्थान का कुछ भाग) पर भी पुनः अपना प्रभुत्व स्थापित किया, लेकिन एक बार फिर गुर्जर प्रतिहारों को पाल तथा राष्ट्रकूटों का सामना करना पड़ा। भोज देवपाल से पराजित हुआ लेकिन ऐसा लगता है कि कन्नौज उसके हाथ से गया नहीं। अब पूर्वी क्षेत्र में भोज पराजित हो गया, तब उसने मध्य भारत तथा दक्कन की ओर अपना ध्यान लगा दिया। गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त करने के अपने प्रयास में उसका फिर राष्ट्रकूटों से संघर्ष छिड़ गया। नर्मदा के तट पर एक भीषण युद्ध हुआ। लेकिन भोज मालवा के अधिकतर क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में सफल रहा। सम्भव है कि उसने गुजरात के कुछ हिस्सों पर भी शासन किया हो।

हरियाणा के करनाल ज़िले में प्राप्त एक अभिलेख के अनुसार भोज ने सतलज नदी के पूर्वी तट पर कुछ क्षेत्रों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस अभिलेख में भोज देव के शक्तिशाली और शुभ शासनकाल में एक स्थानीय मेले में कुछ घोड़ों के व्यापारियों द्वारा घोड़ों की चर्चा की गई है। इससे पता चलता है कि प्रतिहार शासकों और मध्य एशिया के बीच काफ़ी व्यापार चलता था। अरब यात्रियों ने बताया कि गुर्जर प्रतिहार शासकों के पास भारत में सबसे अच्छी अश्व सेना थी। मध्य एशिया तथा अरब के साथ भारत के व्यापार में घोड़ों का प्रमुख स्थान था। देवपाल की मृत्यु और उसके परिणामस्वरूप पाल साम्राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाकर भोज ने पूर्व में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।

भोज विष्णु का भक्त था और उसने ‘आदिवराह’ की पदवी ग्रहण की थी जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। कुछ समय बाद कन्नौज पर शासन करने वाले परमार वंश के राजा भोज, और प्रतिहार वंश के इस राजा भोज में अन्तर करने के लिए इसे कभी-कभी ‘मिहिर भोज’ भी कहा जाता है।

भोज की मृत्यु सम्भवतः 885 ई. में हुई। उसके बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम सिंहासन पर बैठा। महेन्द्रपाल ने लगभग 908-09 तक राज किया और न केवल भोज के राज्य को बनाए रखा वरन मगध तथा उत्तरी बंगाल तक उसका विस्तार किया। काठियावाड़, पूर्वी पंजाब और अवध में भी इससे सम्बन्धित प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल ने कश्मीर नरेश से भी युद्ध किया पर हार कर उसे भोज द्वारा विजित पंजाब के कुछ क्षेत्रों को कश्मीर नरेश को देना पड़ा।

राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण शैली गुर्जर प्रतिहार शैली या महामारू शैली कहलाती है। मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी। 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यशपाल था।

गुर्जर प्रतिहार वंश के राजाओं के नाम –

  • नागभट्ट प्रथम (730 – 756 ई.)
  • वत्सराज (783 – 795 ई.)
  • नागभट्ट द्वितीय (795 – 833 ई.)
  • मिहिरभोज (भोज प्रथम) (836 – 889 ई.)
  • महेन्द्र पाल (890 – 910 ई.)
  • महिपाल (914 – 944 ई.)
  • भोज द्वितीय
  • विनायकपाल
  • महेन्द्रपाल द्वितीय
  • देवपाल (940 – 955 ई.)
  • महिपाल द्वितीय
  • विजयपाल
  • राज्यपाल
  • यशपाल

FAQ

Q : गुर्जर प्रतिहार का संस्थापक कौन था?

Ans : मालवा का शासक नागभट्ट प्रथम ने 725 ई० में गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना की। हालाँकि त्रिकोणात्मक संघर्ष की शुरूआत वत्सराज ने की थी। इन्होंने कन्नौज के शासक इन्द्रायुध को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया। इसलिए वत्सराज को प्रतिहार वंश का वास्तविक संस्थापक और ‘रणहस्तिन्’ कहा गया है।

Q : मिहिर भोज किसका पुत्र था?

Ans: रामभद्र

Q : प्रतिहार कौन सी जाती है?

Ans : प्रतिहार एक शुद्ध क्षत्रिय वंश है।


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5 thoughts on “गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य-वंश का इतिहास | Gurjar Pratihar Vansh History in Hindi”

  1. महेंद्र सिंह प्रतिहार

    क्यू प्रतिहारों को गुर्जर बनाने में तुले हुए हो , प्रतिहारों ने अपने आपको कभी गुर्जर नही माना है

  2. Mahender Gurjar pratihar king mahipal ko mahakavya me unke darbaar ke kavi rajshekher ne ‘dahadta gurjar’ kaha . another king hariraja was called a ferocious gurjar in kadwaha inscription and not to forget that pratiharas called themselves gurjar pratiharas.ye naam unhe dusro ne nahi diya unhone khud shilalekho par likhwaya hai.go and read history

  3. in modern history result of battle of haldighati changes with a change in govt,people in power decide whether akbar won or maharana pratap.so history has become more of a political science
    however what will not change is rajour inscription of gurjar pratihars where they call themselves “”gurjara-pratiharan “”i.e the pratihar clan of the gurjars and the records of their contemporaries like arabs,pal,rastrakutas,rajshekhar,kannada poet pampa,suleiman,al masudi etc..
    no one can be 100 percent sure about history it can only be infered after corroborating with given facts.
    i congratulate you on writing an article based on facts and not rhetoric while in various other places ocean of proofs about their gurjar origin has been brushed aside and they have been conveniently labelled as rajputs ,a word they never associated with nor any one of their contemporaries ever called them rajputs.and they call it history.
    gurjar pratiharas have called themselves in rajour inscription as “gurjara-pratiharanvayah” meaning “the pratihar clan of gurjars “.and they should be called by that name only

  4. Aapne Jo information Diya hai yeh Tu Kamal ki information hai. Hume iske bare me itna knowledge nehi. Par ab is post ko padkar kaphi jankari basil hoyi hai. Thanks

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