चोल साम्राज्य का इतिहास और जानकारी | Chol Vansh History in Hindi

Chol Rajvansh in hindi/ चोल प्राचीन भारत का एक राजवंश था। दक्षिण भारत में और पास के अन्य देशों में तमिल चोल शासकों ने 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच एक अत्यंत शक्तिशाली हिन्दू साम्राज्य का निर्माण किया। चोल शासकों ने श्रीलंका पर भी विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। इनका साम्राज्य 36 लाख वर्गकिलोमीटर तक फैला हुआ था। चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की थी।

चोल साम्राज्य का इतिहास और जानकारी | Chol Vansh History In Hindiचोल साम्राज्य का इतिहास – Chola Dynasty History in Hindi

चोल साम्राज्य का अभ्युदय नौवीं शताब्दी में हुआ और दक्षिण प्राय:द्वीप का अधिकांश भाग इसके अधिकार में था। चोल शासकों ने श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर ली थी और मालदीव द्वीपों पर भी इनका अधिकार था। कुछ समय तक इनका प्रभाव कलिंग और तुंगभद्र दोआब पर भी छाया था। इनके पास शक्तिशाली नौसेना थी और ये दक्षिण पूर्वी एशिया में अपना प्रभाव क़ायम करने में सफल हो सके। चोल साम्राज्य दक्षिण भारत का निःसन्देह सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था। अपनी प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों तक अर्थात बारहवीं ईस्वी के मध्य तक चोल शासकों ने न केवल एक स्थिर प्रशासन दिया, वरन कला और साहित्य को बहुत प्रोत्साहन दिया। कुछ इतिहासकारों का मत है कि चोल काल दक्षिण भारत का ‘स्वर्ण युग’ था।

चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय ने की, जो आरम्भ में पल्लवों का एक सामंती सरदार था। उसने 850 ई. में तंजौर को अपने अधिकार में कर लिया और पाण्ड्य राज्य पर चढ़ाई कर दी। चोल 897 तक इतने शक्तिशाली हो गए थे कि, उन्होंने पल्लव शासक को हराकर उसकी हत्या कर दी और सारे टौंड मंडल पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद पल्लव, इतिहास के पन्नों से विलीन हो गए, पर चोल शासकों को राष्ट्रकूटों के विरुद्ध भयानक संघर्ष करना पड़ा। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ई. में चोल सम्राट परान्तक प्रथम को पराजित किया और चोल साम्राज्य के उत्तरी क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इससे चोल वंश को धक्का लगा, लेकिन 965 ई. में कृष्ण तृतीय की मृत्यु और राष्ट्रकूटों के पतन के बाद वे एक बार फिर उठ खड़े हुए।

चोल साम्राज्य का उत्थान – Chol Vansh ki Sthapna Kisne ki 

छठी शताब्दी के मध्य के बाद दक्षिण भारत में पल्लवों, चालुक्यों तथा पाण्ड्य वंशों का राज्य रहा। पल्लवों की राजधानी कांची, चालुक्यों की बादामी तथा पाण्ड्यों की राजधानी मदुरई थी, जो आधुनिक तंजौर में है और दक्षिण अर्थात केरल में, चेर शासक थे। कर्नाटक क्षेत्र में कदम्ब तथा गंगवंशों का शासन था। इस युग के अधिकतर समय में गंग शासक राष्ट्रकूटों के अधीन थे या उनसे मिलते हुए थे। राष्ट्रकूट इस समय महाराष्ट्र क्षेत्र में सबसे अधिक प्रभावशाली थे। पल्लव, पाण्ड्य तथा चेर आपस में तथा मिलकर राष्ट्रकूटों के विरुद्ध संघर्षरत थे। इनमें से कुछ शासकों विशेषकर पल्लवों के पास शक्तिशाली नौसेनाएँ भी थीं। पल्लवों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ बड़े पैमाने पर व्यापारिक सम्बन्ध थे और उन्होंने व्यापार तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों को बढ़ाने के लिए कई राजदूत भी चीन भेजे। पल्लव अधिकतर शैव मत के अनुयायी थे और इन्होंने आधुनिक चेन्नई के निकट महाबलीपुरम में कई मन्दिरों का निर्माण किया।

चोल वंश के सबसे शक्तिशाली राजा राजराज (985-1014 ई.) तथा उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम (1012-1044 ई.) थे। राजराज को उसके पिता ने अपने जीवन काल में ही अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था और सिंहासन पर बैठने के पहले ही उसने प्रशासन तथा युद्ध-कौशल में दक्षता प्राप्त कर ली थी। राजराज ने सबसे पहले अपना ध्यान पाण्ड्य तथा चेर शासकों तथा उनके मित्र श्रीलंका के शासक की ओर दिया। उसने त्रिवेन्द्रम के निकट चेर की नौसेना को नष्ट किया तथा कुइलान पर धावा बोल दिया। उसके बाद उसने मदुरई तक विजय प्राप्त की और पाण्ड्य शासक को अपना बंदी बना लिया। उसने श्रीलंका पर भी आक्रमण किया और उस द्वीप के उत्तरी हिस्से को अपने साम्राज्य का अंग बना लिया। ये क़दम उसने इसलिए उठाया क्योंकि वह दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों से होने वाले व्यापार को अपनी मुट्ठी में रखना चाहता था। उन दिनों कोरो मंडल तट तथा मालाबार, भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया के बीच होने वाले व्यापार के केन्द्र थे। राजराज ने मालदीव द्वीपों पर भी चढ़ाई की। उत्तर में राजराज ने गंग प्रदेश के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों को भी अपने अधिकार में ले लिया तथा वेंगी को भी विजित कर लिया।

शासन व्यवस्था – Chol Vansh Rule

चोलो के अभिलेखों आदि से ज्ञात होता है कि उनका शासन सुसंगठित था। राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी राजा मंत्रियों एवं राज्याधिकारियों की सलाह से शासन करता था। शासनसुविधा की दृष्टि से सारा राज्य अनेक मंडलों में विभक्त था। मंडल कोट्टम् या बलनाडुओं में बँटे होते थे। इनके बाद की शासकीय परंपरा में नाडु (जिला), कुर्रम् (ग्रामसमूह) एवं ग्रामम् थे। चोल राज्यकाल में इनका शासन जनसभाओं द्वारा होता था। चोल ग्रामसभाएँ “उर” या “सभा” कही जाती थीं। इनके सदस्य सभी ग्रामनिवासी होते थे। सभा की कार्यकारिणी परिषद् (आडुगणम्) का चुनाव ये लोग अपने में से करते थे। उत्तरमेरूर से प्राप्त अभिलेख से उस ग्रामसभा के कार्यों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त होता है। उत्तरमेरूर ग्रामशासन सभा की पाँच उपसमितियों द्वारा होता था। इनके सदस्य अवैतनिक थे एवं उनका कार्यकाल केवल वर्ष भर का होता था। ये अपने शासन के लिए स्वतंत्र थीं एवं सम्राटादि भी उनकी कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे।

चोल शासक प्रसिद्ध भवननिर्माता थे। सिंचाई की व्यवस्था, राजमार्गों के निर्माण आदि के अतिरिक्त उन्होंने नगरों एवं विशाल मंदिर तंजौर में बनवाया। यह प्राचीन भारतीय मंदिरों में सबसे अधिक ऊँचा एवं बड़ा है। तंजौर के मंदिर की दीवारों पर अंकित चित्र उल्लेखनीय एवं बड़े महत्वपूर्ण हैं। राजेंद्र प्रथम ने अपने द्वारा निर्मित नगर गंगैकोंडपुरम् (त्रिचनापल्ली) में इस प्रकार के एक अन्य विशाल मंदिर का निर्माण कराया। चोलों के राज्यकाल में मूर्तिकला का भी प्रभूत विकास हुआ। इस काल की पाषाण एवं धातुमूर्तियाँ अत्यंत सजीव एवं कलात्मक हैं।

चोल शासन के अंतर्गत साहित्य की भी बड़ी उन्नति हुई। इनके शाक्तिशाली विजेताओं की विजयों आदि को लक्ष्य कर अनेकानेक प्रशस्ति पूर्ण ग्रंथ लिखे गए। इस प्रकार के ग्रंथों में जयंगोंडार का “कलिगंत्तुपर्णि” अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त तिरुत्तक्कदेव लिखित “जीवक चिंतामणि” तमिल महाकाव्यों में अन्यतम माना जाता है। इस काल के सबसे बड़े कवि कंबन थे। इन्होंने तमिल “रामायण” की रचना कुलोत्तुंग तृतीय के शासनकाल में की। इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोष, काव्यशास्त्र तथा छंद आदि विषयों पर बहुत से महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना भी इस समय हुई।

चोल साम्राज्य का पतन – Chol vansh ka ant 

चोल साम्राज्य के अंतिम शासक कुलोत्तुंग द्वितीय के उत्तराधिकारी निर्बल थे। वे अपने राज्य को अक्षुण्ण बना रखने में असफल रहे। सुदूर दक्षिण में पाण्ड्य, केरल और सिंहल (श्रीलंका) राज्यों में विद्रोह की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई थी और वे चोलों की अधीनता से मुक्त हो गए। समुद्र पार के जिन द्वीपों व प्रदेशों पर राजेन्द्र प्रथम द्वारा आधिपत्य स्थापित किया गया था, उन्होंने भी अब स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। द्वारसमुद्र के होयसाल और इसी प्रकार के अन्य राजवंशों के उत्कर्ष के कारण चोल राज्य अब सर्वथा क्षीण हो गया। चोलों के अनेक सामन्त इस समय निरन्तर विद्रोह के लिए तत्पर रहते थे, और चोल राजवंश के अन्तःपुर व राजदरबार भी षड़यत्रों के अड्डे बने हुए थे। इस स्थिति में चोल राजाओं की स्थिति सर्वथा नगण्य हो गई थी।

चोल वंश के शासक – Chola Empire List in Hindi

  1. उरवप्पहर्रे इलन जेत चेन्नी
  2. करिकाल
  3. विजयालय (850 – 875 ई.)
  4. आदित्य (चोल वंश) (875 – 907 ई.)
  5. परान्तक प्रथम (908 – 949 ई.)
  6. परान्तक द्वितीय (956 – 983 ई.)
  7. राजराज प्रथम (985 – 1014 ई.)
  8. राजेन्द्र प्रथम (1014 – 1044 ई.)
  9. राजाधिराज (1044 – 1052 ई.)
  10. राजेन्द्र द्वितीय (1052 – 1064 ई.)
  11. वीर राजेन्द्र (1064 – 1070 ई.)
  12. अधिराजेन्द्र (1070 ई.)
  13. कुलोत्तुंग प्रथम (1070 – 1120 ई.)
  14. विक्रम चोल (1120 – 1133 ई.)
  15. कुलोत्तुंग द्वितीय (1133 – 1150 ई.)

चोल वंश के बारे में महत्वपूर्ण बातें – Chola Dynasty Information in Hindi

  • चोल राज्य आधुनिक कावेरी नदी घाटी, कोरोमण्डल, त्रिचनापली और तंजौर तक विस्तृत था।
  • इस राज्य की कोई एक स्थाई राजधानी नहीं थी।
  • यह क्षेत्र उसके राजा की शक्ति के अनुसार घटता-बढ़ता रहता था।
  • वर्तमान पंचायती राज्य व्यवस्था चोल की ही देन है।
  • चोल काल में सोने के सिक्कों को काशु कहते थे।
  • चोल कालीन सभी मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण नटराज शिव मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता था।
  • चोल की भाषा संस्कृत और तमिल थी।
  • चोल कालीन ने मध्य एलार नामक श्रीलंका (सिंहल) को जीतकर उस पर पचास वर्षों से भी अधिक शासन किया।
  • वर्तमान पंचायती राज्य व्यवस्था चोल की ही देन है। चोल का स्थानीय स्वशासन बहुत ही मजबूत थी।
  • उस समय प्रांत को मंडलम कहा जाता था, कमिश्नरी को कोट्टम, जिला को नाडु, ग्राम को कुर्रम कहा जाता था।
  • चोल कालीन सभी मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण नटराज शिव मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता था।

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