गोविंद देवजी मंदिर, वृंदावन का इतिहास Govind Dev ji Temple History in Hindi

Govind Dev ji Temple / गोविंद देवजी मंदिर, वृंदावन हिंदूओं के देवता भगवान कृष्‍ण को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण ई. 1590 (सं.1647) में हुआ। यह मंदिर श्री रूप गोस्वामी और सनातन गुरु, श्री कल्यानदास जी के देख रेख में हुआ। श्री गोविन्द देव जी मंदिर का पूरा निर्माण का खर्च राजा श्री मानसिंह पुत्र राजा श्री भगवान दास, आमेर (जयपुर, राजस्थान) ने किया था। जब मुस्लिम सम्राट औरंगजेब ने इसे नष्ट करने की कोशिश की थी तब गोविंददेव जी को वृंदावन से ले जा कर जयपुर प्रतिष्ठित किया गया था, अब मूल देवता जयपुर में है।

गोविंद देवजी मंदिर, वृंदावन का इतिहास Govind Dev ji Temple History in Hindi

निर्माण – Govind Dev ji Temple History in Hindi

गोविन्द देव जी का मंदिर ई. 1590 (सं.1647) में बना। मंदिर के शिलालेख से यह जानकारी पूरी तरह सुनिश्चित हो जाती है कि इस भव्य देवालय को आमेर (जयपुर, राजस्थान) के राजा भगवान दास के पुत्र राजा मानसिंह ने बनवाया था। रूप एवं सनातन नाम के दो गुरुओं की देखरेख में मंदिर के निर्माण होने का उल्लेख भी मिलता है। जेम्स फर्गूसन ने लिखा है कि यह मन्दिर भारत के मन्दिरों में बड़ा शानदार है। मंदिर की भव्यता का अनुमान इस उद्धरण से लगाया जा सकता है। ‘औरंगज़ेब ने शाम को टहलते हुए, दक्षिण-पूर्व में दूर से दिखने वाली रौशनी के बारे जब पूछा तो पता चला कि यह चमक वृन्दावन के वैभवशाली मंदिरों की है। औरंगज़ेब, मंदिर की चमक से परेशान था, समाधान के लिए उसने तुरंत कार्यवाही के रूप में सेना भेजी। मंदिर, जितना तोड़ा जा सकता था उतना तोड़ा गया और शेष पर मस्जिद की दीवार, गुम्मद आदि बनवा दिए। कहते हैं औरंगज़ेब ने यहाँ नमाज़ में हिस्सा लिया।’

मंदिर के निर्माण में 5 से 10 वर्ष लगे और लगभग एक करोड़ रुपया ख़र्चा बताया गया है। सम्राट अकबर ने निर्माण के लिए लाल पत्थर दिया। श्री ग्राउस के विचार से, अकबरी दरबार के ईसाई पादरियों ने, जो यूरोप के देशों से आये थे, इस निर्माण में स्पष्ट भूमिका निभाई जिससे यूनानी क्रूस और यूरोपीय चर्च की झलक दिखती है।

ई.1873 में श्री ग्राउस (तत्कालीन ज़िलाधीश मथुरा) ने मंदिर की मरम्मत का कार्य शुरू करवाया, जिसमें 38,365 रुपये का ख़र्च आया। जिसमें 5000 रुपये महाराजा जयपुर ने दिया और शेष सरकार ने। मरम्मत और रख रखाव आज भी जारी है लेकिन मंदिर की शोचनीय दशा को देखते हुए यह सब कुछ नगण्य है।

स्थापत्य कला –

गोविंददेव का मन्दिर इनमें से सर्वोत्तम तो था ही, हिन्दू शिल्पकला का उत्तरी भारत में यह अकेला ही आदर्श था। इसकी लम्बाई चौड़ाई 100-100 फीट है। बीच में भव्य गुम्बद है। चारों भुजायें नुकीलें महराबों से ढ़की हैं। दीवारों की औसत मोटाई दस फीट है। ऊपर और नीचे का भाग हिन्‍दू शिल्पकला का आदर्श है और बीच का मुस्लिम शिल्प का। कहा जाता है कि मन्दिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी।

यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी क़िस्म का एक ही नमूना है। खजुराहो के मन्दिर भी इसी शिल्प के हैं। मूलभूत योजनानुसार पाँच मीनारें बनवाई गयीं थीं, एक केन्द्रीय गुम्बद पर और चार अन्य गर्भगृह आदि, पर गर्भगृह पूरा गिरा दिया गया है। दूसरी मीनार कभी पूरी बन ही नहीं पायी। यह सामान्य विश्वास है कि औरंगज़ेब बादशाह ने इन मीनारों को गिरवा दिया था। नाभि के पश्चिम की एक ताख के नीचे एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर संस्कृत में लम्बी इबारत लिखी हुई है। इसका लेख बहुत बिगड़ा हुआ है। फिर भी इसका निर्माण संवत 1647 विक्रमी पढ़ा जा सकता है और यह भी कि रूप और सनातन के निर्देशन में बना था। भूमि से दस फीट ऊँचा लिखा है- राजा पृथ्वी सिंह जयपुर के महाराजा के पूर्वज थे। उसके सत्रह बेटे थे। उनमें से बारह को जागीरें दी गयीं थी। यह अम्बेर (आमेर-जयपुर) की बारह कोठरी कहलाती हैं। मन्दिर का संस्थापक राजा मानसिंह राव पृथ्वी सिंह का पौत्र था।


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