Raja Raja Cholan / राजराज प्रथम अथवा अरिमोलिवर्मन परान्तक द्वितीय के पुत्र एवं उत्तराधिकारी, परान्तक द्वितीय के बाद चोल राजवंश के सिंहासन पर बैठे। चोल साम्राज्य को शक्तिशाली साम्राज्य बनाने का श्रेय राजराज प्रथम को ही जाता हैं। वह कला और धर्म के संरक्षक, संगठनात्मक और राजनीतिक प्रतिभाशाली भी थे।
राजाराज चोल प्रथम का परिचय – Raja Raja Cholan In Hindi
नाम | अरुलमोजहीवर्मन |
अन्य नाम | राजराजा शिवपाड़ा शेखर, तेलुंगाना कुल कला, पोन्नियन सेलवन (केसरी नदी का पुत्र) |
शासन काल | 985 से 1014 ईसवी |
जातीयता | तमिल |
पद्वियाँ | परकेसरी, राजकेसरी, मुम्मुड़ी चोलन |
जन्म | 947 ईसवी |
मृत्यु | 1014 तमिल के माका महीने में |
पूर्वाधिकारी | उत्तम चोल |
उत्तराधिकारी | राजेन्द्र चोल प्रथम |
पत्नी | वानाथी (कोड़मबालुर की राजकुमारी) |
अन्य पत्नियां | लोकमहादेवी चोलमहादेवी त्रैलोकमहादेवी पँचवान्महादेवी अभिमानावल्ली ईअदमादेवीयर पृथ्वीमहादेवी |
वंश | चोल वंश |
पिता | सुन्दर चोल |
माता | वानवां मादेवी |
भाई | आदित्य द्वितीय |
बहन | अलवर श्री परांतकन, श्री कुंदवाई पिरट्टियार |
पुत्रियाँ | राजराजा कुंदवाई अलवर, माथेवाल्ज़गल |
धार्मिक विश्वास | हिन्दू, शैव |
राजाराज चोल प्रथम का इतिहास – Raja Raja Cholan History in Hindi
राजराज प्रथम शासन के 30 वर्ष चोल साम्राज्य के सर्वाधिक गौरवशाली वर्ष थे। उन्होंने अपने पितामह परान्तक प्रथम की ‘लौह एवं रक्त की नीति’ का पालन करते हुए ‘राजराज’ की उपाधि ग्रहण की। जब राजराजा शासक बने, उन्होंने दक्षिण की सीमा तक में दक्षिणी भारत और श्रीलंका के राज्यों और कलिंग पूर्वोत्तर में (उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की। उन्होंने उत्तर में चालुक्यों तथा दक्षिण में पंड्या से अनेको युद्ध लड़े। उन्होंने दक्षिण पश्चिम में पारंपरिक चेरा विरोध का भी दमन किया। राजराज प्रथम के काल में एक दूतमण्डल चीन गया था। 1000 ई. में उसने भूराजस्व के निर्धारण के लिए भूमि का सर्वेक्षण कराया और स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया। दक्षिण भारत का अधिपति बनने में उन्हें एक दशक से भी कम समय लगा।
उन्होंने अपने साम्राज्य को विभिन्न जिलों में विभाजित कर दिया और व्यवस्थित भूमि सर्वेक्षण कर राजस्व संग्रह का मानकीकरण किया। अपने ही तरीके से उन्होंने सुचारू रूप से प्रशासनिक व्यवस्था को बनाए रखा। उन्होंने स्थानीय इकाइयों को भी स्वायत्तता की अनुमति दी।
उनके सबसे बड़े कामों में से एक है तंजौर में शानदार राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण। शक्तिशाली टॉवर (216 फुट) और बेस पर पत्थर की मूर्ति चोल कला का बेहतरीन उदाहरण में से एक है। राजराजा के बाद उनके पुत्र राजेंद्र चोल ने सिंहासन संभाल और अपने पिता के पदचिन्हों का अनुसरण कर चोल साम्राज्य को और भी अधिक गौरवान्वित किया।
राजराज प्रथम ने शैव मतानुयायी होने के कारण ‘शिवपादशेखर’ की उपाधि धारण की। उनके द्वारा प्रचलित सिक्कों पर ‘कृष्ण मुरलीधर’ तथा ‘विष्णु-पद-चिह्न’ आदि का अंकन विशेष उल्लेखनीय है। अपनी धार्मिक सहिष्णुता की नीति का परिचय देते हुए उन्होंने तंजौर के राजराजेश्वर मंदिर की भित्तियों पर अनेक बौद्ध प्रतिमाओं का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने ‘रविकुल मणिक्य’, ‘मुम्माडि चोलदेव’, ‘चोलमार्त्तण्ड’, ‘जयनगोण्ड’ आदि अनेक उपाधियां धारण कीं। उन्होंने तंजौर में द्रविड़ शैली के अन्तर्गत विश्व प्रसिद्ध ‘राजराजेश्वर’ या ‘बृहदीश्वर मंदिर‘ का निर्माण करवाया।
राजराज प्रथम ने अपने शासन के दौरान चोल अभिलेखों का प्रारम्भ ‘ऐतिहासिक प्रशस्ति’ के साथ करवाने की प्रथा की शुरुआत की। उन्होंने शैलेन्द्र शासक श्रीमार विजयोत्तुंगवर्मन को नागपट्टम में ‘चूड़ामणि’ नामक बौद्ध बिहार बनाने की अनुमति दी और साथ ही इसके निर्माण में आर्थिक सहायता भी दी। राजराज प्रथम ने पूर्वी चालुक्य नरेश विमलादित्य के साथ अपने पुत्री का विवाह किया था।
राजा राज चोलन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें – Raja Raja Cholan in Hindi
- राजराज प्रथम ने समुद्री जहाजों का शक्तिशाली बेड़ा तैयार किया और उसकी सहायता से कई टापूओं पर जीत हासिल की। राजराज के राज्यकाल में चोल साम्राज्य समस्त सुदूर दक्षिण में फैल गया। उसने तंजौर में राजराजेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण कराया।
- चोल कालीन सभी मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण नटराज शिव मंदिर है। मंदिर के प्रवेश द्वार को गोपुरम कहा जाता था। वर्तमान पंचायती राज्य व्यवस्था चोल की ही देन है।
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