Omkarnath Thakur / पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर भारत के प्रसिद्ध संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायक थे। वे उस समय के संगीत परिदृष्य के सबसे आकर्षक व्यक्तित्व थे। उनकी संगीत की प्रसिद्धि इस तरह थी की गाँधी जी भी तारीफ करते हैं। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत एवं कला संकाय विभाग के पहले डीन थे। उनका द्वारा गाया वंदेमातरम या ‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो’ सुनने पर एक रूहानी अनुभूति होती है।
ओंकारनाथ ठाकुर की शुरुवाती जीवन – Early Life of Omkarnath Thakur
श्री ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म 24 जून, 1897 को गुजरात के बड़ोदा राज्य में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता नाना साहब पेशवा की सेना में थे। इनके पिताजी की भेंट एक बार अकस्मात् किसी संत से हो गयी, जिसने उन्हें प्रणव-मंत्र में दीक्षित किया, और तब से इनके पिता अधिकाधिक समय प्रणव-साधना में देने लगे।
घर की माली हालत ख़राब होने के कारण बचपन से ही ओंकारनाथ ठाकुर को दूसरे के घरो में काम करना पड़ा। कुछ ही समय बाद उनका परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का बचपन यहीं बिता और प्राथमिक शिक्षा भी यहीं सम्पन्न हुई।
पंडितजी के सुन्दर मुखमंडल और कद-काठी को देखकर एक बार एक सेठ ने उनको गोद लेने की इच्छा प्रकट की, पर पंडितजी के सन्यासी पिता ने कहा: “मेरे बेटा किसी सेठ का पुत्र नहीं बनेगा; वह माँ सरस्वती का पुत्र बनेगा.” यह भविष्यवाणी बहुत जल्दी सत्य सिद्ध होने वाली थी।
ओंकारनाथ ठाकुर का करियर – Omkarnath Thakur Career
ओंकारनाथ की आयु जब 14 वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई।
उन्होंने यहां विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय, मुम्बई में प्रवेश लिया। ओंकारनाथ जी ने पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम को तीन वर्ष में ही पूरा कर लिया और इसके बाद गुरु जी के चरणों में बैठ कर गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत की गहन शिक्षा अर्जित की। 20 वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। 1934 में उन्होंने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की।
उनका विवाह 1922 में इंदिरा देवी से हुआ और उसके साथ ही पंडितजी अपनी कला के चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचे। इसके बाद वे नेपाल गये, जहाँ तत्कालीन महाराज चंद्रशमशेर जंगबहादुर के समक्ष उनको गायन प्रस्तुत करने का अवसर मिला। महाराज इनके गायन से बहुत प्रसन्न हुवे और उन्हें भरपूर सम्मान तथा दरबार में गायक के रूप में नियुक्ति देने का भी प्रस्ताव रखा, परंतु ओंकारनाथजी ने दरबारी गायक बनना स्वीकार नहीं किया।
नेपाल से आने के बाद वे इटली, जर्मनी, हॉलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड और अफ़गानिस्तान भी गये। यूरोप यात्रा के दौरान ही पण्डित जी को अपनी प्रिय पत्नी इंदिरा की मृत्यु का समाचर मिला। वह अपना कार्यक्रम रद्द करके भारत लौट आये। पत्नी की मृत्यु का पंडितजी को बहुत गहरा सदमा लगा। बहुत दिनों तक वह सामान्य नहीं हो सके। बहुत लोगों के कहने के बावजूद ओंकारनाथ ठाकुर ने पत्नी के निधन के बाद पुनर्विवाह नहीं किया और एकाकी जीवन बिताने लगे। उनके शिष्य ही उनके लिए पुत्र-पुत्री समान हो गये थे। फिर उन्होंने मुंबई में संगीत निकेतन की स्थापना की।
एक बार वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक दीक्षान्त समारोह में शामिल होने आए तो उन्हें वहाँ का वातावरण इतना अच्छा लगा कि वे काशी में ही बस गए। 1950 में जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत एवं कला संकाय की स्थापना हुई, तो पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर विभाग के पहले डीन बने। एक कलाकार और शिक्षक के ही नहीं अपितु एक प्रशासक के रूप में भी उन्होंने अपार ख्याति अर्जित की।
पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का जितना प्रभावशाली व्यक्तित्व था उतना ही असरदार उनका संगीत भी था। एक बार महात्मा गाँधी ने उनका गायन सुन कर टिप्पणी की थी- “ओंकारनाथ जी अपने एक गान से जितना कह डालते थे, उतना कहने के लिये उन्हें कई भाषण देने पड़ते थे”
पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर की कालजयी रचनाओं में एक महत्त्वपूर्ण रचना है, ‘वन्देमातरम्…’। 15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग- देश में निबद्ध ‘वन्देमातरम’ के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था। आज़ादी की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँकने में ‘वन्देमातरम’ की भूमिका अविस्मरणीय थी। जब वे सूरदास का पद- ‘मैं नहीं माखन खायो, मैया मोरी…’ गाते थे तो पूरे श्रोता समुदाय की आँखें आँसुओं से भीग जाती थीं।
ओंकारनाथ ठाकुर का निधन
अपने अंतिम समय तक पंडितजी अपने सभी काम अपने हाथों से करते थे, और उनका यह नियम उस समय भी अक्षुण्ण रहा जब उन्हें एक ज़बर्दस्त लकवे का दौरा पड़ा, जिसके कुछ दिनों के बाद 29 दिसंबर, 1967 को पंडितजी का निधन हो गया।
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