Meera Bai – मीरा बाई एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और बहुत बड़ी कृष्ण भक्त थीं। श्रद्धा से भरे रचना के लिए आज भी मीराबाई का नाम आदर से लिया जाता है। मीराबाई श्री गुरु रविदास की शिष्या थीं और 200 से 1300 की अवधि के बीच कई भक्ति गीतों, जिन्हें भजन कहा जाता था, की रचना की थी। भजन और स्तुति की रचनाएँ कर आमजन को भगवान के और समीप पहुँचाने वाले संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है।
मीरा बाई का परिचय – Meera Bai Biography & Life History in Hindi
नाम | मीरा बाई (Meera Bai) |
जन्म दिनांक | 1498 |
जन्म स्थान | मेड़ता (राजस्थान) |
मृत्यु | 1547 |
पिता का नाम | रत्नसिंह |
माता | विरकुमारी |
पति | कुंवर भोजराज |
विषय | कृष्णभक्ति |
भाषा | ब्रजभाषा |
कर्म-क्षेत्र | कवयित्री |
मुख्य रचनाएँ | बरसी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद |
प्रारंभिक जीवन –
मीरा बाई के जन्म काल के बारे में ठिक से जानकारी नहीं है फिर भी मध्यकालीन में हुयी भारत की श्रेष्ठ संत कवियित्री आज भी आदर के पात्र है। कुछ विद्वानों के अनुसार, मीराबाई का जन्म राजस्थान के मेड़ता में सन 1498 में एक राजपरिवार में हुआ था। उनके पिता रतन सिंह राठोड़ एक छोटे से राजपूत रियासत के शासक थे। वे अपनी माता-पिता की इकलौती संतान थीं और जब वे छोटी थीं तभी उनकी माता का निधन हो गया था।
मीरा का लालन-पालन उनके दादा के देख-रेख में हुआ जो भगवान् विष्णु के गंभीर उपासक थे और एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय भी थे और साधु-संतों का आना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था। इस प्रकार मीरा बचपन से ही साधु-संतों और धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं। बचपन में एक बार उनकी माँ ने उन्हें भगवान कृष्ण की एक मूर्ति दी, जिसके साथ वह हमेशा खेलती, गाती और बातें किया करती थीं।
कृष्णभक्ति –
मीराबाई ने खुद की जीवन में बहुत दुख सहा था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। और कृष्ण को अपना पति मानकर उनका कृष्णप्रेम बहुत तीव्र होता गया।
भगवान कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति उनके परिवार को स्वीकार्य नहीं थी। मीराबाई कृष्ण के प्रेम में इतनी मग्न रहती थीं कि वह अक्सर अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान नहीं दे पाती थीं। यहाँ तक कि मीराबाई ने अपने ससुराल में कुल देवी “देवी दुर्गा” की पूजा करने से भी इंकार कर दिया था। मीराबाई ने सार्वजनिक मंदिरों में जाकर नृत्य किया तथा सभी जाति वर्ग के साथ अपने भगवान की प्रशंसा में गीत भी गाए।
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उनको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
आज भी पूरे भारत में उनके भावपूर्ण भक्ति गीत गाए जाते हैं। मीराबाई 16 वीं शताब्दी की भक्ति धारा की संत थीं जो भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त करना चाहती थीं। इस भक्ति आंदोलन (धारा) के अन्य संत कबीर, गुरु नानक, रामानंद और चैतन्य हैं। मीराबाई ब्राह्मण के उपासकों की सगुण शाखा की अनुयायी थीं। मीराबाई का मानना था कि मृत्यु के बाद आत्मा (हमारी आत्मा) और परमात्मा (सर्वोच्च आत्मा या भगवान), एक में मिल जाएगें। मीराबाई ने कृष्ण को अपने पति, भगवान, प्रेमी और गुरु के रूप में माना।
मीराबाई पर अनेक भक्ति संप्रदाय का प्रभाव था। इसका चित्रण उनकी रचनाओं में दिखता है। ‘पदावली’ ये मीराबाई की एकमात्र, प्रमाणभूत काव्यकृती है। ‘पायो जी मैंने रामरतन धन पायो’ ये मीराबाई की प्रसिद्ध रचना है, ‘मीरा के प्रभु गिरिधर नागर’ ऐसा वो खुदका उल्लेख करती है। भारतीय परंपरा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में लिखी गई हजारों भक्तिपरक कविताओं का सम्बन्ध मीरा के साथ जोड़ा जाता है।
मीराबाई की लेखन रचनाएं आध्यात्मिक और प्रेमसंबंधी दोनों थी। मीराबाई को यह दृढ़ विश्वास था कि अपने पिछले जन्म में वह वृंदावन की गोपियों में से एक थीं और श्री कृष्ण के प्रेम में व्याकुल थी। गोपियों की तरह उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपने भगवान के साथ आध्यात्मिक और शारीरिक मिलन था।
मीराबाई के भाषाशैली में राजस्थानी, ब्रज और गुजराती का मिश्रण है। पंजाबी, खड़ीबोली, पुरबी इन भाषा का भी मिश्रण दिखता है। मीराबाई रैदास को अपना गुरु मनती हैं। परंपरागत रूप से, मीराबाई की कविताओं को पाडा कहा जाता है, एक शब्द जिसका उपयोग 14वीं शताब्दी के प्रचारकों द्वारा छोटे आध्यात्मिक गीतों के लिए किया जाता था। मीराबाई की कविताओं में आमतौर पर सरल लय होती है और जो स्वयं के अन्दर एक राग उत्पन्न कर देती है।
मृत्यु –
एक कथा के अनुसार जब उदयसिंह राजा बने तो उन्हें यह जानकर बहुत निराशा हुई कि उनके परिवार में एक महान् भक्त के साथ कैसा दुर्व्यवहार हुआ। तब उन्होंने अपने राज्य के कुछ ब्राह्मणों को मीराबाई को वापस लाने के लिए द्वारका भेजा। जब मीराबाई आने को राजी नहीं हुईं तो ब्राह्मण जिद करने लगे कि वे भी वापस नहीं जायेंगे। उस समय द्वारका में ‘कृष्ण जन्माष्टमी’ आयोजन की तैयारी चल रही थी। मीराबाई ने कहा कि वे आयोजन में भाग लेकर चलेंगी। उस दिन उत्सव चल रहा था। भक्तगण भजन में मग्न थे। मीरा नाचते-नाचते श्री रणछोड़राय जी के मन्दिर के गर्भग्रह में प्रवेश कर गईं और मन्दिर के कपाट बन्द हो गये। जब द्वार खोले गये तो देखा कि मीरा वहाँ नहीं थी। उनका चीर मूर्ति के चारों ओर लिपट गया था और मूर्ति अत्यन्त प्रकाशित हो रही थी। मीरा मूर्ति में ही समा गयी थीं। मीराबाई का शरीर भी कहीं नहीं मिला। उनका निधन सन 1560 में हुआ।
मीरा द्वारा रचित ग्रंथ –
मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की –
- बरसी का मायरा.
- गीत गोविंद टीका.
- राग गोविंद.
- राग सोरठ के पद.
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मीराबाई के रचनाये बहुत भावपूर्ण है। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। कृष्ण के रुप की दीवानी थी।
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Bahut acha gnyan diya hai aap ne
आपने बहुत ही अच्छा समझाया है मीरा बाई के जीवन के बारे मे मुझे बहुत मज़ा आया thanks you