Poet Bulleh Shah / बुल्ले शाह जिन्हे संत की उपाधि प्राप्त हैं एक पंजाबी दार्शनिक और कवी थे। इनका पूरा नाम सैय्यद अब्दुल्ला शाह क़ादरी था परन्तु इन्हे प्यार से साईं बुल्ले शाह या बुल्ला भी कहते हैं। बुल्ले शाह पंजाबी सूफ़ी काव्य के आसमान पर एक चमकते सितारे की तरह थे। उनकी कविताओं में काफ़ियां, दोहड़े, बारांमाह, अठवारा, गंढां और सीहरफ़ियां शामिल हैं। उन्हें उनकी करिश्माई ताकतों के कारण पहचाना जाता था।
बुल्ले शाह का परिचय – Bulleh Shah Information in Hindi
नाम | अब्दुल्ला शाह (Syed Abdullah Shah Qadri) |
जन्म दिनांक | 1680 ई. |
जन्म स्थान | गिलानियाँ उच्च वर्तमान पाकिस्तान |
मृत्यु | 1758 ई. |
पिता का नामशाह मुहम्मद दरवेश | शाह मुहम्मद दरवेश |
कर्म-क्षेत्र | साहित्यकार |
भाषा | पंजाबी, उर्दू, हिंदी |
धार्मिक मान्यता | इस्लाम |
व्यवसाय | कवि |
स्मारक समाधि | क़सूर |
प्रसिद्धि के कारण | पंजाबी सूफ़ी संत एवं कवि |
बाबा बुल्ले शाह भारतीय सन्त परम्परा के महान कवि थे। उनकी काव्य रचना उस समय की हर किस्म की धार्मिक कट्टरता और गिरते सामाजिक किरदार पर एक तीखा व्यंग्य है। बाबा बुल्ले शाह ने बहुत बहादुरी के साथ अपने समय के हाकिमों के ज़ुल्मों और धार्मिक कट्टरता विरुद्ध आवाज़ उठाई। वह इस्लाम के अंतिम नबी मुहम्मद की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे।
बुल्ले शाह जीवनी – Bulleh Shah Biography
बुल्ले शाह की प्रारंभिक जीवन को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। बुल्ले शाह के माता-पिता पुश्तैनी रूप से वर्तमान पाकिस्तान में स्थित बहावलपुर राज्य के “गिलानियाँ उच्च” नामक गाँव से थे। वहां से आजीविका की खोज में गीलानिया छोड़ कर परिवार सहित कसूर (पाकिस्तान) के दक्षिण पूर्व में चौदह मील दूर “पांडो के भट्टिया” गाँव में बस गए। उस समय बुल्ले शाह की आयु छे वर्ष की थी।
वही कुछ विद्वानों के अनुसार बुल्ले शाह का जन्म पाँडोके में हुआ था और कुछ का मानना है कि उनका जन्म उच्च गिलानियाँ में हुआ था और उन्होंने अपने जीवन के पहले छः महीने वहीं बिताए थे। इनके पिता शाह मुहम्मद थे जिन्हें अरबी, फारसी और कुरान शरीफ का अच्छा ज्ञान था। बुल्ले शाह के दादा सैय्यद अब्दुर रज्ज़ाक़ थे और वे सैय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी के वंशज थे। सैय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी बुल्ले शाह के जन्म से तीन सौ साल पहले सु़र्ख़ बुख़ारा नामक जगह से आकर मुलतान में बसे थे।
बुल्ले शाह हज़रत मुहम्मद साहिब की पुत्री फ़ातिमा के वंशजों में से थे। इनके पिता मस्जिद के मौलवी थे। वे सैयद जाति से सम्बन्ध रखते थे। उनके पिता के नेक जीवन का प्रभाव बुल्ले शाह पर भी पड़ा। उनकी उच्च शिक्षा कसूर में ही हुई। उनके उस्ताद हज़रत ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा सरीखे ख्यातनामा थे। पंजाबी कवि वारिस शाह ने भी ख़्वाजा ग़ुलाम मुर्तज़ा से ही शिक्षा ली थी। अरबी, फारसी के विद्वान् होने के साथ-साथ उन्होंने इस्लामी और सूफी धर्म ग्रंथो का भी गहरा अध्ययन किया।
परमात्मा की दर्शन की तड़प इन्हें फकीर हजरत शाह कादरी के द्वार पर खींच लाई। हजरत इनायत शाह का डेरा लाहौर में था। वे जाति से अराई थे। अराई लोग खेती-बाड़ी, बागबानी और साग-सब्जी की खेती करते थे। बुल्ले शाह के परिवार वाले इस बात से दुखी थे कि बुल्ले शाह ने निम्न जाति के इनायत शाह को अपना गुरु बनाया है। उन्होंने समझाने का बहुत यत्न किया परन्तु बुल्ले शाह जी अपने निर्णय से टस से मस न हुए और उन्ही से शिक्षा ली।
बुल्ले शाह की रचनाएँ – Bulleh Shah Poet
बुल्ले शाह धार्मिक प्रवत्ति के थे। उन्होंने सूफी धर्म ग्रंथों का भी गहरा अध्ययन किया था। साधना से बुल्ले ने इतनी ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे। उनकी कृतियों में उनके मानवतावादी होने और पंजाब की मातृभूमि में चल रही परेशानियों का हल ढूँढने वाले व्यक्ति की झलक मिलती है। इस सब के ईश्वर की खोज एक सतत अभियान के रूप में भी दिखती है। उनकी रहस्यमयी आध्यात्मिक यात्रा सूफी पंथ के चार सिद्धांतों को रेखांकित करती है। शरियत, तरिकत, हक़ीकत और मार्फ़त ये सूफी पंथ के चार सिद्धांत हैं। जीवन और मानवता से जुड़ी कठिनायों के आसान समाधान ही उनकी खूबी है।
बुल्ले शाह ने पंजाबी मुहावरे में अपने आप को अभिव्यक्त किया। जबकि अन्य हिन्दी और सधुक्कड़ी भाषा में अपना संदेश देते थे। पंजाबी सूफियों ने न केवल ठेठ पंजाबी भाषा की छवि को बनाए रखा बल्कि उन्होंने पंजाबियत व लोक संस्कृति को सुरक्षित रखा। बुल्ले शाह ने अपने विचारों व भावों को काफियों के रूप में व्यक्त किया है। काफी भक्तों के पदों से मिलता जुलता काव्य रूप है। काफिया भक्तों के भावों को गेय रूप में प्रस्तुत करती हैं इसलिए इनमे बहुत से रागों की बंदिश मिलती है। जन साधारण भी सूफी दरवेशों के तकियों पर जमा होते थे और मिल कर भक्ति में विभोर होकर काफियां गाते थे।
दंत कथाएं – Bulleh Shah Story
बुल्ले शाह व उनके गुरु के सम्बन्धों को लेकर बहुत सी बातें प्रचलित हैं, बुल्ले शाह जब गुरु की तलाश में थे; वह इनायत जी के पास बगीचे में पहुँचे, वे अपने कार्य में व्यस्त थे; जिसके कारण उन्हें बुल्ले शाह जी के आने का पता न लगा; बुल्ले शाह ने अपने आध्यात्मिक अभ्यास की शक्ति से परमात्मा का नाम लेकर आमों की ओर देखा तो पेड़ों से आम गिरने लगे; गुरु जी ने पूछा, “क्या यह आम अपने तोड़े हैं?” बुल्ले शाह ने कहा “न तो मैं पेड़ पर चढ़ा और न ही पत्थर फैंके, भला मैं कैसे आम तोड़ सकता हूँ;” बुल्ले शाह को गुरु जी ने ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, “अरे तू चोर भी है और चतुर भी;” बुल्ला गुरु जी के चरणों में पड़ गया; बुल्ले ने अपना नाम बताया और कहा मैं रब को पाना चाहता हूँ। साईं जी उस समय पनीरी क्यारी से उखाड़ कर खेत में लगा रहे थे। उन्होंने कहा, “बुल्लिहआ रब दा की पौणा। एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा” इन सीधे-सादे शब्दों में गुरु ने रूहानियत का सार समझा दिया कि मन को संसार की तरफ से हटाकर परमात्मा की ओर मोड़ देने से रब मिल जाता है। बुल्ले शाह ने यह प्रथम दीक्षा गांठ बांध ली।
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