Freedom Fighter Birsa Munda – बिरसा मुंडा एक आदिवासी नेता, स्वतंत्रता सेनानी और लोकनायक थे। वर्तमान भारत में रांची और सिंहभूमि के आदिवासी बिरसा मुंडा को अब ‘बिरसा भगवान’ कहकर याद करते हैं। मुंडा आदिवासियों को अंग्रेज़ों के दमन के विरुद्ध खड़ा करके बिरसा मुंडा ने यह सम्मान अर्जित किया था। 19वीं सदी में बिरसा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मुख्य कड़ी साबित हुए थे। उनके द्वारा चलाया जाने वाला सहस्राब्दवादी आंदोलन ने बिहार और झारखंड में खूब प्रभाव डाला था।
बिरसा मुंडा का परिचय – Birsa Munda Biography in Hindi
पूरा नाम | बिरसा मुंडा (Birsa Munda) |
जन्म दिनांक | 15 नवम्बर, 1875 ई. |
जन्म भूमि | उलिहातू, राँची, झारखण्ड |
मृत्यु | 9 जून, 1900 ई., राँची जेल |
पिता का नाम | सुगना मुंडा |
माता का नाम | करमी हातू |
प्रसिद्धि | क्रांतिकारी |
नागरिकता | भारतीय |
आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा है। 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे। सन 1895 से 1900 तक बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला। केवल 25 वर्ष के जीवन में उन्होंने इतने मुकाम हासिल कर लिए थे कि आज भी भारत की जनता उन्हें याद करती है और भारतीय संसद में एकमात्र आदिवासी नेता बिरसा मुंडा का चित्र लगा हुआ है।
प्रारंभिक जीवन – Early Life of Birsa Munda
बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 ई. को झारखण्ड राज्य के रांची जिले के उलिहतु गाँव में हुआ था। इनके पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू थे। मुंडा रीती रिवाज के अनुसार उनका नाम बृहस्पतिवार के हिसाब से बिरसा रखा गया था। बाद में उनके पिता, चाचा, ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। बिरसा का बचपन अपने घर में, ननिहाल में और मौसी की ससुराल में बकरियों को चराते हुए बीता।
बिरसा पढाई में तेज थे इसलिए स्कूल शिक्षक जयपाल नाग ने उन्हें जर्मन मिशन स्कूल में दाखिला लेने को कहा। बाद में उन्होंने कुछ दिन तक ‘चाईबासा’ के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। परन्तु स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। इस कारण ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया।
बिरसा जब पढाई कर रहे थे तब से ही इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया।
भगवान् मानने का कारण
एक समय बिरसा के जीवन में एक नया मोड़ आया। उनका स्वामी आनन्द पाण्डे से सम्पर्क हो गया और उन्हें हिन्दू धर्म तथा महाभारत के पात्रों का परिचय मिला। 1895 में मानसून के अभाव में छोटानागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मन से अपने लोगों की सेवा की। इसके बाद कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिनकी वजह से लोग बिरसा को भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास मजबूत हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं।
धीरे-धीरे लोग उनकी बातें सुनने के लिए बड़ी संख्या में जुटने लगे। बिरसा ने पुराने अंधविश्वासों का खंडन किया। लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह दी। उनकी बातों का प्रभाव यह पड़ा कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वालों की संख्या तेजी से घटने लगी और जो मुंडा ईसाई बन गये थे, वे फिर से अपने पुराने धर्म की ओर लौटने लगे।
धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया। आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अभावों से भरा हुआ था। न खाने को भात था न पहनने को कपड़े। एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट’ 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे। जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए। यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए। उलगुलान शुरू हो गया था।
बिरसा मुंडा का जीवन – Birsa Munda Life History in Hindi
1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी। बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया। ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे। यह मात्र विद्रोह नहीं था। यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था।
बिरसा को लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की इच्छा जागी। बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ यानि ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया।अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे। और भ्रष्ट जमींदार व पूंजीवादी बिरसा के नाम से भी कांपते थे।
1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया। रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी। बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई। हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े। पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते? लोग बेरहमी से मार दिए गए। 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे।
गिरफ़्तारी और शहादत – Birsa Munda Died
बिरसा मुंडा की गिरफ़्तारी उनकी जाति के ही दो व्यक्तियों ने धन के लालच में करा दिया। उन्हें 3 मार्च 1900 को चक्रधरपुर से गिरफ्तार किया गया था। बिरसा ने अपने जीवन की अन्तिम साँसें 9 जून 1900 को राँची कारागार में लीं। शायद उन्हें विष दे दिया गया था।
बिरसा मुण्डा की समाधि राँची में कोकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुण्डा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमान क्षेत्र भी है।
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