Baidyanath Jyotirlinga Temple / श्री बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर भारत का एक अति प्राचीन मंदिर है जो भारत के झारखंड में अतिप्रसिद्ध देवघर नामक स्थान पर अवस्थित है। इस ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवाँ स्थान बताया गया है। पवित्र तीर्थ होने के कारण लोग इसे “बाबा वैद्यनाथ धाम” (Baba Baidyanath Dham) भी कहते हैं। जहाँ पर यह मन्दिर स्थित है उस स्थान को “देवघर” अर्थात देवताओं का घर कहते हैं। यहां माता सती का हृदय गिरा था इसलिय इसे हृदयपीठ भी कहा जाता है। बैद्यनाथ धाम, देवघर मंदिर, Baba Baidyanath Dham History in Hindi, बाबा धाम का इतिहास…
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर की जानकारी – Baidyanath Temple Information in Hindi
पूरा नाम | वैद्यनाथ मन्दिर |
सम्बद्धता | हिंदू धर्म |
देवता | भगवान वैद्यनाथ (भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग अवतार) |
अवस्थिति | देवघर,झारखंड |
निर्माता | राजा पूरनमल (वर्तमान में उपस्थित मंदिर के निर्माता), विश्वकर्मा (प्राचीन मंदिर निर्माता) |
त्यौहार | महाशिवरात्रि |
अन्य नाम | रावणेश्वर, वैद्येश्वर, बैजुनाथ, बैजनाथ और बाबा बैद्यनाथ |
यह ज्योतिर्लिंग एक सिद्धपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर आने वालों की सारी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। इस कारण इस लिंग को “कामना लिंग” भी कहा जाता हैं। मंदिर के परिसर में बाबा बैद्यनाथ के मुख्य मंदिर के साथ-साथ दुसरे 21 मंदिर भी है।
देवघर का शाब्दिक अर्थ है देवी-देवताओं का निवास स्थान। देवघर में बाबा भोलेनाथ का अत्यन्त पवित्र और भव्य मन्दिर स्थित है। हर साल सावन के महीने में स्रावण मेला लगता है जिसमें लाखों श्रद्धालु “बोल-बम!” “बोल-बम!” का जयकारा लगाते हुए बाबा भोलेनाथ के दर्शन करने आते है। ये सभी श्रद्धालु सुल्तानगंज से पवित्र गंगा का जल लेकर कई सौ किलोमीटर की अत्यन्त कठिन पैदल यात्रा कर बाबा को जल चढाते हैं।
बैद्यनाथ धाम की पवित्र यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) में शुरु होती है। सबसे पहले तीर्थ यात्री सुल्तानगंज में एकत्र होते हैं जहाँ वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र गंगाजल भरते हैं। इसके बाद वे गंगाजल को अपनी-अपनी काँवर में रखकर बैद्यनाथ धाम और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे।
बैद्यनाथ धाम को संस्कृत ग्रंथों में हरीतकी वन और केतकी वन कहा गया है। मत्स्य पुराण बैद्यनाथ धाम को आरोग्य बैद्यनाथ के रूप में भी वर्णित करता है, पवित्र स्थान जहां शक्ति रहती है और लोगों को असाध्य रोगों से मुक्त करने में शिव की सहायता करती है। इस जगह का नाम देवघर कैसे पड़ा, इस बारे में जानकारी नहीं हैं। किन ऐसा लगता है कि बैद्यनाथ मंदिर के निर्माण के बाद इसे बैद्यनाथ धाम के नाम से जाना जाता है और बाद में इसे देवघर या बी देवघर कहा जाने लगा।
बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर का इतिहास – Baidyanath Temple in Hindi
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान शिव ने रावण की प्रार्थना से प्रभावित उसे एक शिवलिंग दिया था, जो रावण को अपने राज्य तक अपनी यात्रा बाधित किये बगैर ले जाना था। देवता दिव्य शिवलिंग को शत्रु राज्य को दिये जाने से प्रसन्न नहीं थे और इसलिए भगवान विष्णु एक ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया तथा रावण से सफलतापूर्वक शिवलिंग छुड़ा दिया, और इस प्रकार यह देवघर में छूट गया।
खोया हुआ शिवलिंग बैजू नाम के एक आदमी को मिला था और उसके बाद इसका नाम बैद्यनाथ मंदिर रखा गया। वैजू मंदिर ज्योतिर्लिंग मंदिर से 700 मीटर दूर ही स्थापित है। पुराणों में भी बैद्यनाथ को महत्व दिया गया है। मान्यता हैं की प्राचीन मंदिर का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने स्वंय किया था।
मंदिर में लगे शिलालेखो से यह भी ज्ञात होता है की इस मंदिर का निर्माण पुजारी रघुनाथ ओझा की प्रार्थना पर किया गया था। सूत्रों के अनुसार पूरण मल ने 1596 में मंदिर की मरम्मत करवाई थी। रघुनाथ ओझा इन शिलालेखो से नाराज थे लेकिन वे पूरण मल का विरोध नही कर पाए। जब पूरण मल चले गए तब उन्होंने वहाँ एक बरामदा बनवाया और खुद के शिलालेख स्थापित किये।
देवघर का यह पूरा क्षेत्र गिधौर के राजाओं के शासन में था, जो देवघर मंदिर से काफी जुड़े हुए थे। हालांकि देवघर के मूल नागरिक पनारी और आदिवासी हैं, लेकिन बाद में कई धार्मिक समूह यहां निवास करने आए। ऐतिहासिक तथ्य कहते हैं कि मैथिल ब्राह्मण यहां 13वीं शताब्दी के अंत में और 14वीं शताब्दी की शुरुआत में मिथिला साम्राज्य से आए थे, जिसे दरभंगा के नाम से जाना जाता है। राधि ब्राह्मण 16वीं शताब्दी के दौरान मध्य बंगाल से यहां आए थे, कन्याकुब्ज भी इसी चरण के दौरान मध्य भारत से आए थे।
खुलासती-त-त्वारीख में लिखी गयी जानकारी के अनुसार बाबाधाम के मंदिर को प्राचीन समय में भी काफी महत्त्व दिया जाता था। 18 वी शताब्दी में गिधौर के महाराजा को राजनितिक उथल-पुथल का सामना करना पड़ा। इस समय उन्हें बीरभूम के नबाब से लड़ना पड़ा। कुछ सालो तक नबाब ने बाबाधाम पर शासन किया। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद गिधौर के महाराजा ने नबाब को पराजित कर ही दिया और जबतक ईस्ट इंडिया कंपनी भारत नही आयी तबतक उन्होंने बाबाधाम पर शासन किया।
1757 में प्लासी के युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियो का ध्यान इस मंदिर पर पड़ा। एक अंग्रेजी अधिकारी कीटिंग ने अपने कुछ आदमियों को मंदिर का शासन प्रबंध देखने के लिए भी भेजा। बीरभूम के पहले अंग्रेजी कलेक्टर मिस्टर कीटिंग मंदिर के शासन प्रबंध में रूचि लेने लगे थे। 1788 में कीटिंग ने स्वयं देवघर मंदिर का दौरा किया, तो वे आश्वस्त हो गए और प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की अपनी नीति को छोड़ने के लिए मजबूर हो गए। उसने मंदिर का पूरा नियंत्रण महायाजक (सरदार पंडा ) के हाथों में सौंप दिया। तब से, प्रधान पुजारी मैथिल ब्राह्मण हैं।
सरदार पंडा की सूची – Baidyanath Temple Panda
1. मुकुंद झा
2. जूधन झा
3 मुकुंद झा दूसरी बार
4. चिक्कू झा
5. रघुनाथ झा 1586 में
6. चिक्कू झा दूसरी बार
7. मल्लू
8. सेमकरण झा सरेवार
9. सदानंद
10. चंद्रपाणी
11. रत्नपाणी
12. जय नाथ झा
13. वामदेव
14. यदुनंदन
15. टीकाराम 1762 तक
16. देवकी नंदन 1782 तक
17. नारायण दत्त 1791 तक
18. रामदत्त 1810 तक
19. आनंद दत्त ओझा 1810 तक
20. परमानंद 1810 से 1823 तक
21. सर्वानंद 1823 से 1836 तक
22. ईश्वरी नंद ओझा 1876 तक
23. शैलजानंद ओझा 1906 तक
24. उमेशा नंद ओझा 1921 तक
25. भवप्रीतानन्द ओझा 1928 से 1970 तक
26. अजीता नंद ओझा 06 जुलाई 2017 से 22 मई 2018 तक
27. गुलाब नंद ओझा 22 मई 2018 से
बाबा बैजनाथ धाम की कहानी – Baidyanath Temple Story in Hindi
राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था। एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था। बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा। उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया। राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया। उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था। तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया।
वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था। इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी। इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए। ऐसा कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है।
कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा। वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था। इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले। जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये। उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया।
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया। भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ। आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए।’ इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये। उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– ‘राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो’
भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया। भगवान शिव के इस निर्णय से सभी देवता चिंतित हो गए और स्वर्ग में विकट स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसा इसलिए था क्योंकि रावण इसका फायदा उठा सकता था और एक दिन स्वर्ग पर राज कर सकता था। इसलिए, सभी देवताओं ने रावण को रोकने के लिए एक समाधान निकाला।
योजना के अनुसार, गंगा ने राजा रावण के शरीर में प्रवेश किया और उसे लघुशंका (मूत्रोत्सर्ग) करने के लिए मजबूर किया। सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया। एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया। पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया।
लघुशंका करने के बाद रावण को हाथ धोने के लिए जल की जरूरत पड़ी। आसपास जल का कोई स्रोत नहीं था, इसलिए उसने जमीन से जल निकालने के लिए अपने अंगूठे से पृथ्वी को दबाया। बाद में इस स्थान ने एक तालाब का रूप धारण कर लिया, जिसे शिव-गंगा तालाब के नाम से जाना गया।
हाथ धोने के बाद रावण शिवलिंग को धरती से उखाड़ने की कोशिश की, लेकिन वह नहीं कर सके। गुस्से में उन्होंने शिवलिंग को धरती के अंदर दबा दिया। जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया। उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी से बतायी। देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये। भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की।
इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया। जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है। इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है।
हालाँकि कुछ समय पहले तक, लोग पृथ्वी मे धसे लिंग की पूजा करते थे जब हाल ही में लिंग को पृथ्वी से बाहर निकाला गया।
श्रावणी मेला – Baidyanath Dham Mandir Ka Famous Shravan Mela In Hindi
हर साल जुलाई और अगस्त के महीने में प्रसिद्ध श्रावणी मेला झारखंड में आयोजित किया जाता है तथा हजारों श्रद्धालु इस 30 दिवसीय महोत्सव के दौरान मंदिर की यात्रा करते हैं। भगवान शिव के भक्त शिवलिंग पर पवित्र जल अर्पण करते हैं।
श्रद्धालु सबसे पहले सुल्तानगंज जाते हैं, जो बाबाधाम से 105 किमी दूर है। सुल्तानगंज में, गंगा उत्तर में बहती है यह इस जगह से है कि भक्तों गंगा जल ले कर बाबा धाम की और पैदल आते है। वे बाबा बैधनाथ मंदिर तक 109 किलोमीटर की दूरी पर चलते हैं,लोग बोल बम बोलते हुए यहाँ तक बहुत ही श्रद्धा के साथ पहुचते है। बाबाधाम तक पहुंचने पर, कावरिया पहले शिवगंगा में खुद को शुद्ध करने के लिए एक डुबकी लेते हैं, और फिर बाबा बैद्यनाथ मंदिर में प्रवेश करते हैं, जहां ज्योतिर्लिंगम पर गंगा जल अर्पित करते है।
यह दुनिया का सबसे लंबा धार्मिक मेला है विदेशी भूमि के लोग न केवल श्रावण महीने में बल्कि शेष वर्ष के दौरान भी बाबाधाम जाते हैं। सुल्तानगंज से बाबाधाम की राह पर नजर रखने वाले लोगों का एक 109 कि.मी. लंबी मानव श्रृंखला वाली भगवा पहने तीर्थयात्रियों का है। अनुमान के मुताबिक लगभग 7 से 8 मिलियन भक्त इस स्थान पर आते हैं। श्रवण की महान तीर्थ के अलावा, लगभग पूरे वर्ष मार्च में शिवरात्रि के साथ मेला, जनवरी में बसंत पंचमी, सितंबर में भद्रा पूर्णिमा लोगो का आना जाना लगा रहता है।
वैद्यनाथ मंदिर की वास्तुकला – Architecture of Baba Baidyanath Baba Dham
वैद्यनाथ मंदिर का निर्माण पगोडा शैली के अनुसार किया गया है। जहां पर पत्थरों में सूक्ष्म नक्काशी की गई है। मंदिर की परिसर को विशाल पत्थरों से बनाया गया है। 22 मंदिरों वाले बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर मे ज्योतिर्लिंग बाबा बैद्यनाथ मंदिर, शक्ति पीठ माँ पार्वती मंदिर, के अलावे 20 अन्य मंदिर स्थित हैं। इन मंदिरों में से प्रमुख वैद्यनाथ मंदिर है। यहाँ पर माँ पार्वती, भगवान श्रीगणेश, ब्रह्मा जी, कालभैरव, काली, अन्नपूर्णा और लक्ष्मी-नारायण सहित अन्य देवताओं के मंदिर स्थित हैं। माँ पार्वती मंदिर लाल पवित्र धागे के साथ शिव मंदिर से जुड़ा हुआ है।
मुख्य मंदिर के ऊपर एक पिरामिड टॉवर है जिसमें तीन सोने के बर्तन हैं जिसे राजा पूरन सिंह ने उपहार के रूप में दिए थे। इस मंदिर में त्रिशूल आकृति वाले पाँच चाकू भी हैं, और साथ में एक कमल का गहना भी है जिसमें आठ पंखुड़ियाँ हैं। जिन्हें चंद्रकांता मणि कहा जाता है। मंदिर के सामने भगवान शिव का एक विशाल नंदी पर्वत विराजमान है।
वैद्यनाथ मन्दिर के मुख्य आकर्षण – Baidyanath Temple Famous Place
बैद्यनाथ मंदिर हिंदुओं के लिए पूजा का एक शुभ स्थान है, जो भारत में 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक होने के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ माता सती का हृदय गिरा था इस कारण इसे हृदय पीठ अथवा हार्द पीठ के नाम से भी जाना जाता है। इसलिए बैद्यनाथ धाम के नाम से प्रसिद्ध देवघर को देवी-देवताओं का घर माना जाता है। परिसर के अंदर बाबा बैद्यनाथ के मुख्य मंदिर के अलावा 21 मंदिर हैं जहां प्राथमिक लिंग मौजूद हैं।
परिसर में 22 मंदिरों की सूची :-
- बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मंदिर (मुख्य मंदिर)
- मां काली मंदिर
- मां अन्नपूर्णा मंदिर
- लक्ष्मी नारायण मंदिर
- नील कंठ मंदिर
- माँ पार्वती मंदिर (जय दुर्गा शक्ति पीठ)
- मां जगत जन्नई मंदिर
- गणेश मंदिर
- ब्रह्मा मंदिर
- मां संध्या मंदिर
- काल भैरव मंदिर
- हनुमान मंदिर
- मनसा मंदिर
- मां सरस्वती मंदिर
- सूर्य नारायण मंदिर
- मां बागला मंदिर
- नरवदेश्वर मंदिर
- श्री राम मंदिर
- मां गंगा मंदिर
- आनंद भैरव मंदिर
- गौरी शंकर मंदिर
- माँ तारा मंदिर
देवघर मंदिर का रहस्य
प्रसिद्ध 12 ज्योतिर्लिंगों में सर्वश्रेष्ठ माने जाने वाले देवघर स्थित बाबा वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग से कई रहस्य जुड़े हैं।
चंद्रकांत मणि
बाबा बैद्यनाथ मंदिर के शिखर पर भीतरी भाग में लगा हैं ‘चंद्रकांत मणि’। मान्यता है कि लाखों साल पहले लंका के राजा रावण ने यह मणि कुबेर से छीनकर यहां लगाई थी। यह भी कहा जाता है कि मणि से हर एक मिनट पर एक बूंद जल ज्योतिर्लिंग पर गिरता रहता है। अन्य किसी भी ज्योतिर्लिंग में चंद्रकांत मणि होने का सबूत नहीं मिला है। बैद्यनाथ ज्योर्तिलिंगपर गिरनेवाला जल चरणामृत के रूप में जब लोग ग्रहण करते हैं तब वह किसी भी रोग से मुक्ति दिलाता है।
पंचशूल
देवघर मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके शीर्ष पर त्रिशूल नहीं, ‘पंचशूल’ है, जिसे सुरक्षा कवच माना गया है। वैद्यनाथ मंदिर के शीर्ष पर लगे पंचशूल के विषय में धर्म के जानकारों का अलग-अलग मत है। एक मत है कि त्रेता युग में रावण की लंकापुरी के द्वार पर सुरक्षा कवच के रूप में भी पंचशूल स्थापित था।
पंचशूल के बारे में धार्मिक ग्रंथों में कहा गया है कि रावण को पंचशूल यानी सुरक्षा कवच को भेदना आता था, जबकि यह भगवान राम के वश में भी नहीं था। विभीषण ने जब युक्ति बताई, तभी राम और उनकी सेना लंका में प्रवेश कर सकी थी। उन्होंने कहा कि सुरक्षा कवच के कारण ही इस मंदिर पर आज तक किसी भी प्राकृतिक आपदा का असर नहीं हुआ है।
यहाँ प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि से 2 दिनों पूर्व बाबा मंदिर, माँ पार्वती व लक्ष्मी-नारायण के मंदिरों से पंचशूल उतारे जाते हैं। इस दौरान पंचशूल को स्पर्श करने के लिए भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। पंचशूल का दूसरा कार्य मानव शरीर में मौजूद पांच विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह व ईर्ष्या का नाश करना है।
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