Rashtrakuta dynasty – राष्ट्रकूट भारत का एक राजवंश था, जिसका शासन दक्षिण भारत, मध्य भारत और उत्तरी भारत के बड़े भूभाग पर था। राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव ‘दन्तिदुर्ग’ ने डाली थी। इस राजवंश ने चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के शोलापुर के निकट अपनी राजधानी ‘मान्यखेट’ अथवा ‘मानखेड़’ की नींव रखी।
राष्ट्रकूट राजवंश का इतिहास – Rashtrakuta Dynasty History in Hindi
जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इनका शासनकाल लगभग छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य था। इस काल में उन्होंने परस्पर घनिष्ठ परन्तु स्वतंत्र जातियों के रूप में राज्य किया। राष्ट्रकूट काल में कन्नड़ तथा संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना हुयी थी। इनमें जिनसेन का आदिपुराण, महावीराचार्य का गणितसारसंग्रहण, अमोघवर्ष का कविराजमार्ग आदि उल्लेखनीय हैं।
‘मान्यखेत के राष्ट्रकूटों’ की सत्ता के उच्चतम शिखर पर उनका साम्राज्य उत्तरदिशा में ‘गंगा’ और ‘यमुना नदी’ पर स्थित दोआब से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक था। यह उनके राजनीतिक विस्तार, वास्तुकला उपलब्धियों और साहित्यिक योगदान का काल था। इस राजवंश के प्रारंभिक शासक हिंदू धर्म के अनुयायी थे, परन्तु बाद में यह राजवंश जैन धर्म के प्रभाव में आ गया था।
राष्ट्रकूट राजा बड़े प्रतापी थे इन्होने कई राजाओ को पराजित किया। ध्रुव प्रथम ने गंगवादी (मैसूर) के गंगवंश के राजाओं को पराजित किया, कांची (कांचीपुरम) के पल्लवों से लोहा लिया और बंगाल के राजा तथा काननोज पर दावा करने वाले प्रतिहार शासक को पराजित किया। कृष्ण द्वितीय ने, जो 878 में सिंहासन पर बैठे, फिर से गुजरात पर कब्जा कर लिया, जो अमोघवर्ष प्रथम के हाथों से छिन गया था। लेकिन वे वेंगी पर फिर से अधिकार करने में असफल रहे। उनके पौत्र इंद्र तृतीय ने, जो 914 में सत्तारूढ़ हुये। कन्नौज पर कब्जा करके राष्ट्रकूट शक्ति को अपने चरम पर पहुंचा दिया। कृष्ण तृतीय ने उत्तर के अपने अभियानों से इसका और विस्तार किया तथा कांची और तमिल अधिकार वाले मैदानी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया।
राष्ट्रकूटों के सबसे शक्तिशाली शासक सम्भवतः इन्द्र तृतीय (915-927) तथा कृष्ण तृतीय (929-965) थे। महीपाल की पराजय और कन्नौज के पतन के बाद 915 में इन्द्र तृतीय अपने समय का सबसे शक्तिशाली राजा था। इसी समय भारत आने वाले यात्री अल मसूदी के अनुसार ‘बल्लभराज या बल्हर भारत का सबसे महान् राजा था और अधिकतर भारतीय शासक उसके प्रभुत्व को स्वीकार करते थे और उसके राजदूतों को आदर देते थे। उसके पास बहुत बड़ी सेना और असंख्य हाथी थे।’
इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। राष्ट्रकूट संभवत: मूल रूप से द्रविड़ किसान थे, जो लाततापुर (लातूर, उसमानवाद के निकट) के शाही परिवार के थे। ये कन्नड भाषा बोलते थे, लेकिन उन्हें उत्तर-डाककनी भाषा की जानकारी भी थी। अपने शत्रु चालुक्य वंश को पराजित करने वाले राष्ट्रकूट वंश के शासन काल में ही दक्कन साम्राज्य भारत की दूसरी बड़ी राजनीतिक इकाई बन गया, जो मालवा से कांची तक फैला हुआ था।
धार्मिक उदारता – Rashtrakuta Information in Hindi
राष्ट्रकूट सम्राट धार्मिक मामलों में उदार और सहिष्णु थे और उन्होंने न केवल शैव और वैष्णव वरन् जैन मतावलंबियों को भी संरक्षण प्रदान किया। एलोरा के प्रसिद्ध शिव गुहा मन्दिर का निर्माण एक राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण प्रथम ने ही नौवीं शताब्दी में किया था। कहा जाता है कि उसके उत्तराधिकारी अमोघवर्ष ने जैन धर्म को स्वीकार कर लिया था। पर वह अन्य वर्गों को भी संरक्षण प्रदान करता था। राष्ट्रकूटों ने न केवल मुस्लिम व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की छूट दी वरन् इस्लाम के प्रचार की अनुमति भी दी। कहा जाता है कि राष्ट्रकूट साम्राज्य के कई तटवर्ती नगरों में मुसलमानों के अपने नेता तथा कई बड़ी-बड़ी मस्जिदें भी थी। राष्ट्रकूटों की सहिष्णुता की इस नीति से उसके विदेश व्यापार में वृद्धि हुई और उनकी समृद्धि भी बढ़ी।
उनके शासन काल में जैन गणितज्ञों और विद्वानों ने ‘कन्नड’ व ‘संस्कृत’ भाषाओं के साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनी वास्तुकला ‘द्रविणन शैली’ में आज भी मील का पत्थर मानी जाती है, जिसका एक प्रसिद्ध उदाहरण ‘एल्लोरा’ का ‘कैलाशनाथ मन्दिर’ है। अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में ‘महाराष्ट्र’ में स्थित ‘एलीफेंटा गुफाओं’ की मूर्तिकला तथा ‘कर्णाटक’ के ‘पताद्क्कल’ में स्थित ‘काशी विश्वनाथ’ और ‘जैन मन्दिर’ आदि आते हैं, यही नहीं यह सभी ‘यूनेस्को’ की वर्ल्ड हेरिटेज साईट में भी शामिल हैं।
राष्ट्रकूट राजवंश का पतन
राष्ट्रकूटों का राज देर तक क़ायम नहीं रहा। राजा मान्यखेट के राजसिंहासन पर रहा, राष्ट्रकूटों की शक्ति अक्षुण्ण बनी रही। पर उसके मरते ही राष्ट्रकूट साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। कृष्ण तृतीय का उत्तराधिकारी खोट्टिग नित्यवर्ष था। उसके शासन काल में मालवा के परमार राजा सीयक हर्ष (शासन काल 974 ई. पू. तक) ने राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण किया, और मान्यखेट को बुरी तरह से लूटा।
खोट्टिग नित्यवर्ष का उत्तराधिकारी कर्क था। कल्याणी के चालुक्य राजा तैलप द्वितीय ने राष्ट्रकूटों की निर्बलता से लाभ उठाकर कर्क को पराजित किया, और उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया। कर्क राष्ट्रकूट वंश का अन्तिम राजा था, और उसके साथ ही इस वंश का भी अन्त हो गया। इसके बाद दक्षिणापथ पर एक बार फिर चालुक्य वंश का आधिपत्य स्थापित हुआ।
राष्ट्रकूट वंश (शासक) – Rashtrakuta Empire List
- कृष्ण प्रथम (758 – 773 ई०)
- ध्रुव (780 – 793 ई०)
- गोविंद तृतीय (793 – 814 ई०)
- अमोघवर्ष (814 – 878 ई०)
- कृष्ण द्वितीय (878 – 914 ई०)
- इंद्र तृतीय (914 – 922 ई०)
- कृष्ण तृतीय (939 – 968 ई०)
- खोत्रिग (968 – 972 ई०)
- कर्क द्वितीय (972 – 973 ई०)
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