पुरी जगन्नाथ मन्दिर का इतिहास, तथ्य | Puri Jagannath Temple History in Hindi

Jagannath Temple Puri – ओड़िशा के पुरी में स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर (Puri Jagannath Temple) एक हिन्दू मंदिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। 10वीं शताब्दी में निर्मित यह प्राचीन मन्दिर सप्त पुरियों में से एक है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है।

पुरी जगन्नाथ मन्दिर का इतिहास, तथ्य | Puri Jagannath Temple History In Hindi

जगन्नाथ मन्दिर की जानकारी – Puri Jagannath Temple Information in Hindi

पुरी के श्री जगन्नाथ मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लस के साथ मनाया जाता है।

इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मंदिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।

इस स्थान पर अनगिनत भक्त शांति की खोज में पहुंचते हैं जो जगन्नाथ मंदिर के त्रय देवताओं द्वारा प्रदान की जाती है- भगवान जगन्नाथ (अर्थात ‘ब्रह्मांड़ के भगवान’), भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा। मंदिर, अपनी शानदार चमक के साथ, आपको शास्त्रीय युग में ले जा सकता है। मंदिर में बजती घंटियां, 65 फुट ऊंची अद्भत पिरामिड़ संरचना, हर एक जानकारी से खुदी उत्कीर्ण दीवारें, भगवान कृष्ण के जीवन का चित्रण करते स्तंभ – ये सब और अन्य कई कारक हर साल लाखों श्रद्धालुओं को जगन्नाथ मंदिर की ओर आकर्षित करते हैं।

जगन्नाथ मंदिर का इतिहास – History of Puri Jagannath Temple in Hindi

गंग वंश के हाल ही में अन्वेषित ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है, कि वर्तमान मंदिर के निर्माण कार्य को कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था। मंदिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल (1078 – 1148) में बने थे। फिर सन 1197 में जाकर ओडिआ शासक अनंग भीम देव ने इस मंदिर को वर्तमान रूप दिया था।

मंदिर में जगन्नाथ अर्चना सन 1558 तक होती रही। इस वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बंद करा दी, तथा विग्रहो को गुप्त मे चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे रखागया। बाद में, रामचंद्र देब के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर, मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई।

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मंदिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दांत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था।

मंदिर से जुड़ी परंपरागत कथाए – Jagannath Story in Hindi

इस मंदिर के उद्गम से जुड़ी परंपरागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया।

उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। किंतु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आये। माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं।

जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है, जिसके अनुसार मंदिर में मौजूद भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं। ब्रह्मा कृष्ण के नश्वर शरीर में विराजमान थे और जब कृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा। ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया। उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया। राजा इन्द्रद्युम्न, जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला और उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया। उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है। हर 12 वर्ष के अंतराल के बाद जगन्नाथ की मूर्ति बदलती है लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है।

इस लकड़ी के लट्ठे से एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि यह मूर्ति हर 12 साल में एक बार बदलती तो है लेकिन लट्ठे को आज तक किसी ने नहीं देखा। मंदिर के पुजारी जो इस मूर्ति को बदलते हैं, उनका कहना है कि उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ पर कपड़ा ढक दिया जाता है। इसलिए वे ना तो उस लट्ठे को देख पाए हैं और ही छूकर महसूस कर पाए हैं। पुजारियों के अनुसार वह लट्ठा इतना सॉफ्ट होता है मानो कोई खरगोश उनके हाथ में फुदक रहा है।

पुजारियों का ऐसा मानना है कि अगर कोई व्यक्ति इस मूर्ति के भीतर छिपे ब्रह्मा को देख लेगा तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसी वजह से जिस दिन जगन्नाथ की मूर्ति बदली जानी होती है, उड़ीसा सरकार द्वारा पूरे शहर की बिजली बाधित कर दी जाती है। यह बात आज तक एक रहस्य ही है कि क्या वाकई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में ब्रह्मा का वास है।

रथयात्रा का इतिहास – History of Rath Yatra in Hindi

पौराणिक मान्यता है कि द्वारका में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा, तब भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें रथ पर बैठाकर नगर का भ्रमण कराया। इसी घटना की याद में हर साल तीनों देवों को रथ पर बैठाकर नगर के दर्शन कराए जाते हैं। रथयात्रा से जुड़ी कई अन्य रोचक कथाएं भी हैं जिनमें से एक जगन्नाथ जी, बलराम जी और सुभद्रा जी की अपूर्ण मूर्तियों से भी संबंधित हैं।

मंदिर का ढांचा – Puri Jagannath Temple Structure

मंदिर का वृहत क्षेत्र 4,00,000 वर्ग फ़ुट (37,000 मी2) में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है।

मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फ़ुट (65 मी) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेर ेहुए अन्य छोटे पहाड़ियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है।

मुख्य मढ़ी (भवन) एक 20 फ़ुट (6.1 मी) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।

जगन्नाथ मंदिर के आश्चर्यजनक तथ्य – Puri Jagannath Temple Facts in Hindi

1). पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।

2). सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है।

3). मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है।

4). पक्षी या विमानों को मंदिर के ऊपर उड़ते हुए नहीं पाएंगे।

5). मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है।

6). मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती, लाखों लोगों तक को खिला सकते हैं।

7). मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है।

8). मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।

9). एक पुजारी मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदलता है। ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 वर्षों के लिए बंद हो जाएगा।


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