Sridharacharya / श्रीधर प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ थे वे बीजगणित के प्रख्यात आचार्य के रूप में विश्व-प्रसिद्ध है। भास्करचार्य ने उनका उल्लेख बीजगणित के कई स्थानों पर किया है।
श्रीधराचार्य का परिचय – Sridharacharya Biography in Hindi
उनके बारे में हमारी जानकारी बहुत ही अल्प है। उनके समय और स्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा अनुमान है कि उनका जीवनकाल 870 ई से 930 ई के बीच था। उनकी माता का नाम अच्चोका और पिता का नाम वासुदेव शर्मा था। वह कर्नाटक राज्य के रहने वाले थे। उन्होंने बाल्यवस्था में ही अपने पिताजी से कन्नड़ और संस्कृति साहित्य की विज्ञा प्राप्त की थी। श्रीधर प्रारंभ से शेव थे, किंतु आगे चलकर जैन मतानुयायी बन गए।
जीवन कार्य – Sridharacharya Life History in Hindi
श्रीधर ने ‘त्रिशतिका’ नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक की एक प्रति पं. सुधाकर द्विवेदी के मित्र राजाजी ज्योतिविर्द तथा गणित तरंगिनी के अनुसार कर्नाटक राज्य के पुस्तकालय में विघमान थी। इस पुस्तक में 300 शलोक है। इसके एक श्लोक से पता चलता है कि यह उनके बड़े ग्रंथ का सार है। यह पुस्तक मुख्यत: पाटी गणित से संबंधित है। इसमें श्रेणी व्यवहार, छाया व्यवहार आदि पर प्रकाश डाला गया है।
सुधाकर द्विवेदी के मतानुसार, न्यायकंदली के रचनाकार भी श्रीधर थे। नयाकन्दली की रचना शक सवंत 913 में की गई थी। अतः श्रीधराचार्य का समय भी शक सवंत 913 के आसपास माना जाता है, परंतु यह सही नहीं है। इस मत का समर्थन न तो दीक्षित और न ही डॉक्टर सिंह करते हैं। महावीरचार्य की पुस्तक ‘गणित सार संग्रह’ में श्रीधर के व्यवहार संबंधित कुछ वाक्य मिलते हैं। इससे प्रकट होता है कि श्रीधर महावीर से पहले हुए थे। दीक्षित के मत में महावीर का समय शक सवंत 775 तथा डॉक्टर सिंह के मत में सावंत 850 है।
श्रीधरचार्य की गणित-सार में प्रमुख देन अभिन्न, गुणक, भगाहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्न, संच्छेद, भावजाति, प्रमाणजाती, भागनुबंध, त्रैराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक, भांड, प्रतिभाण्ड, मिश्रण व्यवहार, भव्यक व्यवहार सूत्र, सुवर्ण गणित प्रक्षेपक, संक्रय-विक्रय सूत्र, श्रेणी व्यवहार, क्षेत्र व्यवहार, स्वात व्यवहार, चितव्य व्यवहार, काष्ट व्यवहार, राशि व्यवहार, छाया व्यवहार, गणितो का प्रतिपादन एवं निरूपण करना है। साथ ही उन्होंने वृत्त, क्षेत्रफल परिधि और व्यास का चतुर्त्यांश भी बतलाया है।
अन्य सभी भारतीय गणिताचार्यों की तुलना में श्रीधराचार्य द्वारा प्रस्तुत शून्य की व्याख्या सर्वाधिक स्पष्ट है। उन्होने लिखा है-
यदि किसी संख्या में शून्य जोड़ा जाता है तो योगफल उस संख्या के बराबर होता है; यदि किसी संख्या से शून्य घटाया जाता है तो परिणाम उस संख्या के बराबर ही होता है; यदि शून्य को किसी भी संख्या से गुणा किया जाता है तो गुणनफल शून्य ही होगा। उन्होने इस बारे में कुछ भी नहीं कहा है कि किसी संख्या में शून्य से भाग करने पर क्या होगा।
किसी संख्या को भिन्न (fraction) द्वारा भाजित करने के लिये उन्होने बताया है कि उस संख्या में उस भिन्न के व्युत्क्रम (reciprocal) से गुणा कर देना चाहिये। उन्होने बीजगणित के व्यावहारिक उपयोगों के बारे में लिखा है और बीजगणित को अंकगणित से अलग किया।
उन्होने गोले के आयतन का निम्नलिखित सूत्र दिया है-
गोलव्यासघनार्धं स्वाष्टादशभागसंयुतं गणितम्। ( गोल व्यास घन अर्धं स्व अष्टादश भाग संयुतं गणितम् )
अर्थात V = d3/2 + (d3/2) /18 = 19 d3/36
गोले के आयतन π d3 / 6 से इसकी तुलना करने पर पता चलता है कि उन्होने पाई के स्थान पर 19/6 लिया है।
बीज गणित के समीकरण को हल करने के लिए इन्होने अपने पुस्तक में एक श्लोक लिखा है। इस प्रकार –
चतुराहतवर्गसमै रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत.
अव्यक्तवर्गरुयैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम्.
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