Pandit Bhimsen Joshi / पंडित भीमसेन जोशी एक प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक थे। उन्होंने 19 साल की उम्र से गायन शुरू किया था और वे सात दशकों तक शास्त्रीय गायन करते रहे। वे अपने प्रसिद्ध भक्तिमय भजनों और अभंगो के लिए भी जाने जाते है।
अपने एकल गायन से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में नए युग का सूत्रपात करने वाले पंडित भीमसेन जोशी कला और संस्कृति की दुनिया के छठे व्यक्ति थे, जिन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था। इसके आलावा भारतीय राष्ट्रिय अकादमी की संगीत नाटक अकादमी ने उनके सर्वोच्च पुरस्कार संगीत नाटक अकादमी शिष्यवृत्ति से नवाजा था।
भीमसेन जोशी का परिचय – Bhimsen Joshi Information
नाम | पंडित भीमसेन जोशी (Pandit Bhimsen Gururaj Joshi) |
जन्म दिनांक | 4 फ़रवरी, 1922 |
जन्म स्थान | गडग, कर्नाटक |
मृत्यु | 24 जनवरी, 2011, पुणे, महाराष्ट्र |
पिता का नाम | गुरुराज जोशी |
माता का नाम | गोदवरि देवी |
पत्नी | सुनंदा कट्टी, वत्सला मुधोलकर |
संतान | राघवेन्द्र, उषा, सुमंगला, आनंद, जयंत, शुभदा और श्रीनिवास जोशी |
कार्यक्षेत्र | शास्त्रीय गायन |
नागरिकता | भारतीय |
पुरस्कार-उपाधि | भारत रत्न, पद्म विभूषण, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, पद्म श्री |
पंडित भीमसेन जोशी किराना घराने के महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय गायक थे। देश-विदेश में लोकप्रिय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के महान् गायकों में उनकी गिनती होती थी। किराना घराने’ के भीमसेन गुरुराज जोशी ने गायकी के अपने विभिन्न तरीकों से एक अद्भुत गायन की रचना की। उनका ये प्रसिद्ध गीत हर किसी के जुबां में हैं – ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा’
प्रारंभिक जीवन –
भीमसेन जोशी का जन्म 4 फ़रवरी, 1922 ई. को कर्नाटक के ‘गड़ग’ में हुवा था। उनके पिता ‘गुरुराज जोशी’ स्थानीय हाई स्कूल के हेडमास्टर और कन्नड़, अंग्रेज़ी और संस्कृत के विद्वान् थे। उनकी माता का नाम गोदवरिदेवी था, जो एक गृहिणी थी। उनके चाचा जी.बी जोशी चर्चित नाटककार थे तथा उनके दादा प्रसिद्ध कीर्तनकार थे। वे अपने 16 भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। युवावस्था में ही उन्होंने अपनी माता को खो दिया था और बाद में उन्हें उनकी सौतेली माँ ने बड़ा किया था।
पंडित भीमसेन जोशी को बचपन से ही संगीत का बहुत शौक था। उन्हें संगीत के वाद्य जैसे हार्मोनियम और तानपुरा बजाना भी उन्हें काफी पसंद था। उन्हें संगीत के प्रति इतना जूनून था की राह चलते भजन मंडली के पीछे चल पड़ते थे। इससे उनके पिता काफी परेशान रहते और एक बार तो उन्होंने उसकी शर्ट पर भी लिख दिया था की, “अगर यह आपको मिले तो उक्त पते पर पहुंचा दें, यह शिक्षक जोशी का बेटा है।”
करियर –
भीमसेन जोशी किराना घराने के संस्थापक अब्दुल करीम खान से बहुत प्रभावित थे। 1932 में वह गुरु की तलाश में घर से निकल पड़े। अगले दो वर्षो तक वह बीजापुर, पुणे और ग्वालियर में रहे। उन्होंने ग्वालियर के उस्ताद हाफिज अली खान से भी संगीत की शिक्षा ली। लेकिन अब्दुल करीम खान के शिष्य पंडित रामभाऊ कुंडालकर से उन्होने शास्त्रीय संगीत की शुरूआती शिक्षा ली।
भीमसेन जोशी जब गुरु की तलाश में घर से भाग निकले थे उस घटना को याद कर उन्होंने विनोद में कहा- “ऐसा करके उन्होंने परिवार की परम्परा ही निभाई थी।” मंज़िल का पता नहीं था। रेल में बिना टिकट बैठ गये और बीजापुर तक का सफर किया। टी.टी. को राग भैरव में ‘जागो मोहन प्यारे’ और ‘कौन-कौन गुन गावे’ सुनाकर मुग्ध कर दिया। साथ के यात्रियों पर भी उनके गायन का जादू चल निकला। सहयात्रियों ने रास्ते में खिलाया-पिलाया। अंतत: वह बीजापुर पहुँच गये। गलियों में गा-गाकर और लोगों के घरों के बाहर रात गुज़ार कर दो हफ़्ते बीत गये। एक संगीत प्रेमी ने सलाह दी, ‘संगीत सीखना हो तो ग्वालियर जाओ।’ इसके बाद वे ग्वालियर पहुंचे।
पहला संगीत प्रदर्शन –
जब वे मात्र 19 साल के थे तभी उन्होंने अपना पहला मंच पर प्रस्तुति दी। उनका पहला एल्बम 20 वर्ष की आयु में निकला, जिसमें कन्नड़ और हिन्दी में कुछ धार्मिक गीत थे। इसके दो वर्ष बाद वह रेडियो कलाकार के तौर पर मुंबई में काम करने लगे। 1946 में गुरु सवाई गंधर्व के 60 वे जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में उनके परफॉरमेंस की दर्शको के साथ ही गुरु ने भी काफी प्रशंसा की थी।
भीमसेन जोशी उस संगीत के पक्षधर थे, जिसमें राग की शुद्धता के साथ ही उसको बरतने में भी वह सिद्धि हो कि सुनने वाले की आंखें मुंद जाएं, वह किसी और लोक में पहुंच जाए। भीमसेन जोशी की गायकी स्वयं में इस परिकल्पना की मिसाल है।
पंडित भीमसेन जोशी को बुलंद आवाज़, सांसों पर बेजोड़ नियंत्रण, संगीत के प्रति संवेदनशीलता, जुनून और समझ के लिए जाना जाता था। ये वह दौर था, जब माइक नहीं होते थे, या फिर नहीं के बराबर होते थे। इसलिए गायकी में स्वाभाविक दमखम का होना बहुत ज़रूरी माना जाता था। गायक और पहलवान को बराबरी का दर्जा दिया जाता था।
भीमसेन जोशी की प्रसिद्धि इतनी हैं की उनको खयाल गायकी का स्कूल भी कहा जाता है। संगीत के छात्रों को बताया जाता है कि खयाल गायकी में राग की शुद्धता और रागदारी का सबसे सही तरीका सीखना है तो जोशी जी को सुनो। उन्होंने कन्नड़, संस्कृत, हिंदी और मराठी में ढेरों भजन और अभंग भी गाए हैं जो बहुत ही लोकप्रिय हैं। भीमसेन जोशी ने पं. हरिप्रसाद चौरसिया, पं. रविशंकर और बाल मुरली कृष्णा जैसे दिग्गजों के साथ यादगार जुगलबंदियां की हैं।
पसंदीदा राग –
उन्होंने ‘सुधा कल्याण’, ‘मियां की तोड़ी’, ‘भीमपलासी’, ‘दरबारी’, ‘मुल्तानी’ और ‘रामकली’ जैसे अनगिनत राग छेड़ संगीत के हर मंच पर संगीत प्रमियों का दिल जीता। शुद्ध कल्याण, मुल्तानी और भीमपलासी भीमसेन जोशी के पसंदीदा राग रहे।
निजी जीवन –
भीमसेन जोशी ने अपने जीवन में दो शादियाँ की। उनकी पहली पत्नी उनके मातृक चाचा की बेटी सुनंदा कट्टी थी, जिनके साथ उनकी पहली शादी 1944 में हुई थी। सुनंदा से उन्हें चार बच्चे हुए, राघवेन्द्र, उषा, सुमंगला और आनंद। इसके आलावा 1951 में उन्होंने कन्नड़ नाटक भाग्य-श्री में उनकी सह-कलाकारा वत्सला मुधोलकर से शादी कर ली। वत्सला से भी उन्हें तीन बच्चे हुए, जयंत, शुभदा और श्रीनिवास जोशी। कुछ समय वे दोनों पत्नियों के साथ रहे, लेकिन बाद में उनकी पहली पत्नी अलग हो गयी और लिमएवाडी, सदाशिव पेठ, पुणे में किराये के मकान में रहने लगी।
पंडित भीमसेन जोशी सम्मान और उपलब्धियाँ – Bhimsen Joshi Awards
संगीत नाटक अकादमी, पद्म भूषण समेत अनगिनत सम्मान के बाद 2008 में जोशी जी को ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया। उनके सम्मान इस प्रकार हैं –
- सन 1972 में उन्हें ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया गया।
- ‘भारत सरकार’ द्वारा उन्हें कला के क्षेत्र में सन 1985 में ‘पद्म भूषण’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
- सन 1999 में ‘पद्म विभूषण’ प्रदान किया गया था।
- 4 नवम्बर, 2008 को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न‘ भी जोशी जी को मिला।
- ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका था।
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