Kumbhandas / कुम्भनदास अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि और परमानंददास जी के ही समकालीन थे। इन्हें मधुरभाव की भक्ति प्रिय थी और इनके रचे हुए लगभग 500 पद उपलब्ध हैं। ये कृष्णभक्त थे और किसी से दान नहीं लेते थे।
कुम्भनदास का परिचय – Kumbhandas Biography in Hindi
कुम्भनदास का जन्म अनुमानत: सन् 1468 ई. में गोवर्धन पर्वत के निकट जमुनावतो गांव में हुवा था। वे जन्म से गोरवा क्षत्रिय थे। उनका सम्पर्क वल्लभाचार्य से उस समय हुआ जब वह पहली बार 1492 में ब्रज आये तथा वहां श्रीनाथ जी के मंदिर की स्थापना की। तब से वह वहीं श्रीनाथ जी के भजन-कीर्तन में लगे रहे। कीर्तनकार के पद पर नियुक्त होने पर भी उन्होंने अपनी वृत्ति नहीं छोड़ी और अन्त तक निर्धनावस्था में अपने परिवार का भरण-पोषण करते रहे।
परिवार में इनकी पत्नी के अतिरिक्त सात पुत्र, सात पुत्र-वधुएँ और एक विधवा भतीजी थी। परन्तु गोस्वामी विट्ठलनाथ के पूछने पर उन्होंने कहा था कि वास्तव में उनके डेढ़ ही पुत्र हैं क्योंकि पाँच लोकासक्त हैं, एक चतुर्भुजदास भक्त हैं और आधे कृष्णदास हैं। अत्यन्त निर्धन होते हुए भी ये किसी का दान स्वीकार नहीं करते थे। वे किसान भी थे इसी से खेती करके अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे।
कुम्भनदास ने अपने गुरु वल्लभाचार्य पर भी अनेक पदों की रचना की थी। परन्तु वह श्रीकृष्ण से क्षण भर का वियोग भी सहन नहीं कर पाते थे। एक बार तो कुम्भनदास ने इसी कारण वल्लभाचार्य के साथ द्वारका जाना अस्वीकार कर दिया था।
उनका चरित्र अद्भुत था जिसका आकलन तो तब और अच्छा से किया जा सकता है जब यह पता हो कि वह एक बड़े परिवार का भरण-पोषण खेती, करील के फूल, टेंटी तथा झाड़ के बेरों से किया करते थे। वह बिल्कुल निर्द्वंद्व तथा निःस्पृह थे। एक बार राजा मानसिंह ने उन्हें सोने की आरसी तथा हजार मोहरों की थैली भेंट की परन्तु उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इन्होंने राजा मानसिंह द्वारा दी गयी जमुनावतो गाँव की माफी की भेंट भी स्वीकार नहीं की थी और उनसे कह दिया था कि यदि आप दान करना चाहते है तो किसी ब्राह्मण को दीजिए। उन्हें तो केवल श्रीकृष्ण की कृपा चाहिए थी किसी अन्य की कृपा तथा दान नहीं।
कुम्भनदास को निकुंजलीला का रस अर्थात् मधुर-भाव की भक्ति प्रिय थी और इन्होंने महाप्रभु से इसी भक्ति का वरदान माँगा था। अन्त समय में इनका मन मधुर–भाव में ही लीन था, क्योंकि इन्होंने गोस्वामीजी के पूछने पर इसी भाव का एक पद गाया था।
सम्राट अकबर और कुम्भनदास जी की भेंट
एक बार अकबर ने इन्हें फ़तेहपुर सीकरी बुलाया था। सम्राट की भेजी हुई सवारी पर न जाकर ये पैदल ही गये। अकबर ने इनका यथेष्ठ सम्मान किया, तो भी इन्होंने इसे समय नष्ट करना समझा। बादशाह ने जब इनका गायन सुनने की इच्छा जताई तो इन्होंने यह भजन गाया :-
“संतन का सिकरी सन काम ॥ टेक ॥
आवत जात पनहियाँ टूटीं, बिसरि गयो हरि नाम॥
जिनको मुख देखे दु:ख उपजत, तिनको करनी परी सलाम।
कुंभनदास लाल गिरधर बिन और सबै बे-काम॥”
अकबर को विश्वास हो गया कि कुम्भनदास अपने इष्टदेव को छोड़कर अन्य किसी का यशोगान नहीं कर सकते फिर भी उन्होंने कुम्भनदास से अनुरोध किया कि वे कोई भेंट स्वीकार करें, परन्तु कुंभन दास ने यह माँग की कि आज के बाद मुझे फिर कभी न बुलाया जाय।
कुम्भनदास जी की रचनाएँ – Kumbhandas Ji in Hindi
कुम्भनदास के पदों की कुल संख्या जो ‘राग-कल्पद्रुम’ ‘राग-रत्नाकर’ तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में मिलते हैं, 500 के लगभग हैं। इन पदों की संख्या अधिक है। जन्माष्टमी, राधा की बधाई, पालना, धनतेरस, गोवर्द्धनपूजा, इंद्रमानभंग, संक्रान्ति, मल्हार, रथयात्रा, हिंडोला, पवित्रा, राखी वसन्त, धमार आदि के पद इसी प्रकार के है। कृष्णलीला से सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास ने गोचार, छाप, भोज, बीरी, राजभोग, शयन आदि के पद रचे हैं जो नित्यसेवा से सम्बद्ध हैं। इनके अतिरिक्त प्रभुरूप वर्णन, स्वामिनी रूप वर्णन, दान, मान, आसक्ति, सुरति, सुरतान्त, खण्डिता, विरह, मुरली रुक्मिणीहरण आदि विषयों से सम्बद्ध श्रृंगार के पद भी है।
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