Rani Gaidinliu – रानी गाइदिनल्यू भारत की प्रसिद्ध महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं। उन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व किया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान ही वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए इन्हें ‘नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई’ कहा जाता है। उनको भारत सरकार द्वारा समाज सेवा के क्षेत्र में सन 1982 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
रानी गाइदिनल्यू का परिचय – Rani Gaidinliu Biography in Hindi
पूरा नाम | रानी गाइदिनल्यू (Rani Gaidinliu) |
अन्य नाम | रानी गिडालू |
जन्म दिनांक | 26 जनवरी, 1915 |
जन्म भूमि | मणिपुर, भारत |
निधन | 17 फ़रवरी, 1993 |
पिता का नाम | लोथोनान्ग |
माता का नाम | करोटलिएनलिउ |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि के कारण | स्वतंत्रता सेनानी |
कर्म भूमि | भारत |
पुरस्कार-उपाधि | पद्मभूषण |
क्रन्तिकारी रानी गाइदिनल्यू भारत की नागा आध्यात्मिक एवं राजनीतिक नेत्री थीं। जब रानी मात्र 16 वर्ष की थी, तब अंग्रेजों ने उनके आन्दोलनों और क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से उन्हें गिरफ्तार भी किया था। सन् 1937 में शिल्लोंग जेल में रानी गाइदिनल्यू और पंडित जवाहरलाल नेहरू की मुलाकात हुई और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें जेल से निकालने के कई प्रयास किए, मगर अंग्रेज़ों ने रानी गाइदिनल्यू को आजाद नहीं किया। सन् 1947 में भारत के आजाद होने के बाद रानी गाइदिनल्यू को जेल से आजाद किया गया। आजादी के बाद रानी गाइदिनल्यू ने अपने लोगों के लिए कई उल्लेखनीय कार्य किए।
रानी गाइदिनल्यू का इतिहास – History of Rani Gaidinliu
रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 ई. को भारत के मणिपुर राज्य में पश्चिमी ज़िले में एक छोटे से गांव नुन्ग्काओ में हुआ था। अपने माता-पिता की आठ संतानों में वे पांचवे नंबर की थीं। उनके परिवार का सम्बन्ध गाँव के शाषक वर्ग से था। आस-पास कोई स्कूल न होने के कारण उनकी औपचारिक शिक्षा नहीं हो पायी।
गाइदिनल्यू बचपन से ही बड़े स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्वभाव की थीं। जब रानी गाइदिनल्यू केवल 13 वर्ष की थी, तब वे अपने चचेरे भाई ‘जादोनाग’ के ‘हेराका’ आन्दोलन से जुड़ गई। जादोनाग मणिपुर से अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। वे अपने आन्दोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते, उससे पहले ही गिरफ्तार करके अंग्रेज़ों ने उन्हें 29 अगस्त, 1931 को फ़ाँसी पर लटका दिया।
जब उनके चचेरे भाई जादोनाग का निधन हो गया तो, चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व बालिका गाइदिनल्यू के हाथों में आ गया। उन्होंने महात्मा गाँधी के आन्दोलन के बारे में सुनकर ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार का कर न देने की घोषणा की। प्रारंभ में इस आन्दोलन का स्वरुप धार्मिक था पर धीरे-धीरे इसने राजनैतिक रूप धारण कर लिया जब आन्दोलनकारियों ने मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को खदेड़ना शुरू किया।
नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए क़दम उठाये। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर जन-जातीय लोग उन्हें सर्वशक्तिशाली देवी मानने लगे थे। ब्रिटिश प्रशासन उनकी गतिविधियों से पहले ही बहुत परेशां था पर अब और सतर्क हो गया। अब वे उनके पीछे लग गए।
सोलह वर्ष की इस बालिका के साथ केवल चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही थे। इन्हीं को लेकर भूमिगत गाइदिनल्यू ने अंग्रेज़ों की फ़ौज का सामना किया। वह गुरिल्ला युद्ध और शस्त्र संचालन में अत्यन्त निपुण थीं। अंग्रेज़ उन्हें बड़ी खूंखार नेता मानते थे। दूसरी ओर जनता का हर वर्ग उन्हें अपना उद्धारक समझता था।
अंग्रेज सरकार के आदेश पर असम के गवर्नर ने ‘असम राइफल्स’ की दो टुकड़ियाँ उनको और उनकी सेना को पकड़ने के लिए भेजा। इसके साथ-साथ प्रशासन ने रानी गाइदिनल्यू को पकड़ने में मदद करने के लिए इनाम भी घोषित कर दिया। रानी द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने वहाँ के कई गांव जलाकर राख कर दिए। पर इससे लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ। सशस्त्र नागाओं ने एक दिन खुलेआम ‘असम राइफल्स’ की सरकारी चौकी पर हमला कर दिया।
स्थान बदलते, अंग्रेज़ों की सेना पर छापामार प्रहार करते हुए गाइदिनल्यू ने एक इतना बड़ा क़िला बनाने का निश्चय किया, जिसमें उनके चार हज़ार नागा साथी रह सकें। इस पर काम चल ही रहा था कि 17 अप्रैल, 1932 को अंग्रेज़ों की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया। गाइदिनल्यू गिरफ़्तार कर ली गईं और उनके कई समर्थकों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
गिरफ्तारी के बाद रानी ने कहा था, “मैं उनके लिए जंगली जानवर के समान थी, इसलिए एक मजबूत रस्सी मेरी कमर से बांधी गई। दूसरे दिन कोहिमा में मेरे दूसरे छोटे भाई ख्यूशियांग की क्रूरता से पिटाई की गई। कड़कड़ाती ठंड में हमारे कपड़े छीन कर हमें रातों में ठिठुरने के लिए छोड़ दिया गया, पर मैंने धीरज नहीं खोया था।” रानी को इंफाल जेल में रखा गया, जहाँ उनपर 10 महीने तक मुकदमा चला और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।।
प्रशासन ने उनके ज्यादातर सहयोगियों को या तो मौत की सजा दी या जेल में डाल दिया। सन 1933 से लेकर सन 1947 तक रानी गाइदिनल्यू गौहाटी, शिल्लोंग, आइजोल और तुरा जेल में कैद रहीं। सन 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू को असम जाने पर रानी गाइदिनल्यू की वीरता का पता चला तो उन्होंने उन्हें ‘नागाओं की रानी’ की संज्ञा दी। नेहरू जी ने उनकी रिहाई के लिए बहुत प्रयास किया, लेकिन मणिपुर के एक देशी रियासत होने के कारण इस कार्य में सफलता नहीं मिली। क्योंकि वे रानी से बहुत भयभीत थे और उन्हें अपने लिए ख़तरनाक मानते थे।
भारत की आजादी के बाद सन 1947 में उनकी रिहाई हुई। कुछ समय अवकाश के बाद अपने क्षेत्र के कबीले की राजनीतिक तथा सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाना शुरू कर दिया। रानी ने इस देश की आजादी के लिए अपनी जवानी तक बलि पर चढ़ा दी थी। इस अपूर्व त्याग के लिए उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता।
स्वतंत्रता संग्राम में साहसपूर्ण योगदान के लिए प्रधानमंत्री की ओर से ताम्रपत्र देकर और राष्ट्रपति की ओर से ‘पद्मभूषण’ की मानद उपाधि देकर उन्हें सम्मानित किया गया था। उन्हें सन 1972 में उन्हें ‘ताम्रपत्र स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार’ और 1983 में ‘विवेकानंद सेवा पुरस्कार’ भी दिया गया था।
रानी गाइदिनल्यू का निधन 17 फ़रवरी, 1993 को लोंग्काओ में हुआ। अपने क्षेत्र में रानी के प्रति नागाओं की इतनी अधिक श्रद्धा थी कि उनके छुए जल की बोतल उस समय 10 रुपये में बिकती थी, क्योंकि नागाओं का ऐसा मानना था कि इस जल को पीने मात्र से रोगों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है।
वे गाइदिनल्यू नागा नेशनल कौंसिल (एन.एन.सी.) का विरोध करती थीं क्योंकि वे नागालैंड को भारत से अलग करने चाहते थे जबकि रानी ज़ेलिआन्ग्रोन्ग समुदाय के लिए भारत के अन्दर ही एक अलग क्षेत्र चाहती थीं। एन.एन.सी.उनका इस बात के लिए भी विरोध कर रहे थे क्योंकि वे परंपरागत नागा धर्म और रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी कर रही थीं।
नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत हो जाना पड़ा और भारत सरकार के साथ एक समझौते के बाद वे 6 साल बाद 1966 में बाहर आयीं। फरवरी 1966 में वे दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शाष्त्री से मिलीं और एक पृथक ज़ेलिआन्ग्रोन्ग प्रशासनिक इकाई की मां की। इसके बाद उनके समर्थकों ने आत्म-समर्पण कर दिया जिनमें से कुछ को नागालैंड आर्म्ड पुलिस में भर्ती कर लिया गया।
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