Rani Chennamma – रानी चेन्नम्मा भारत के कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थीं। वे 1824 में अंग्रेजो के खिलाफ अपनी सेना बनाकर लढने वाली पहली रानी थी। उन्होंने अंग्रेज़ों की सेना को उनके सामने दो बार मुँह की खानी पड़ी थी। भारत में उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करने वाले सबसे पहले शासकों में उनका नाम लिया जाता है।
रानी चेन्नम्मा का परिचय – Rani Chennamma Biography in Hindi
नाम | रानी चेन्नमा (Rani Chennamma) |
जन्म दिनांक | 23 अक्तूबर, 1778 ई. |
जन्म स्थान | कित्तूर, कर्नाटक |
मृत्यु | 21 फरवरी, 1829 ई. |
पिता का नाम | धूलप्पा |
माता का नाम | पद्मावती |
विवाह | राजा मल्लसर्ज |
कर्म भूमि | दक्षिण भारत |
राज्य | कित्तूर |
भाषा | संस्कृत भाषा, कन्नड़ भाषा, मराठी भाषा और उर्दू भाषा |
प्रसिद्धि के कारण | अंग्रेजो के खिलाफ लड़ने वाली पहली रानी |
रानी चेन्नम्मा का दक्षिण भारत के कर्नाटक में वही स्थान है जो स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का है। उन्होंने अंग्रेजों से सशस्त्र संघर्ष किया था। संघर्ष में वह वीरगति को प्राप्त हुईं। वह ब्रिटिश शासन और कप्पा कर के खिलाफ लड़ने वाली पहली महिला थी| उनकी विरासत और पहली जीत आज भी हर 22-24 अक्टूबर को कित्तूर उत्सव के रूप में, कित्तूर में मनायी जाती है।
रानी चेन्नम्मा का इतिहास – Rani Chennamma History In Hindi
रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्तूबर, 1778 ई. को भारत के कर्नाटक राज्य के बिलगावी जिले के छोटे से गांव काकटि में हुआ था। वह दक्षिणी भारत के कर्नाटक के कित्तूर राज्य की रानी थीं। कित्तूर उन दिनों मैसूर के उत्तर में एक छोटा स्वतंत्र राज्य था। परन्तु यह बड़ा संपन्न था। यहाँ हीरे-जवाहरात के बाज़ार लगा करते थे और दूर-दूर के व्यापारी आया करते थे। अपनी युवा अवस्था में चेन्नम्मा ने घोड़े की सवारी, तलवार से लड़ने और तीरंदाजी में प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वे अपने पडोसी राजा की ही रानी बनी थी और देसाई परिवार के राजा मल्लासर्ज से उन्होंने विवाह कर लिया था।
रानी चेन्नम्मा पर दुखो का पहाड़ उस समय टुटा जब उनके पति का निधन हो गया। कुछ साल बाद एकलौते पुत्र का भी निधन हो गया। ऐसे में राज्य के सामने राजा के पद का संकट खड़ा हो गया। कित्तुर की राजगद्दी रिक्त हो गई थी। जिसे भरने के लिए रानी चेन्नम्मा ने एक पुत्र गोद लिया। जिसे अंग्रेजो ने राजा मानने से अस्वीकार कर दिया। ये भी एक कारण था रानी और अंग्रेजों के बिच लड़ाई का।
दरअसल, उन दिनों कर्नाटक सहित पूरे भारत पर अंग्रेजों का राज था। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गर्वनर लॉर्ड डलहौजी ने गोद निषेध नीति की घोषणा कर दी थी। इस नीति के अनुसार भारत के जिन राजवंशों में गद्दी पर बैठने के लिए वारिस नहीं होता था, उन्हें ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपने नियंत्रण में ले लेती थी।
अंग्रेज़ों की नजर इस छोटे परन्तु संपन्न राज्य कित्तूर पर बहुत दिन से लगी थी। अवसर मिलते ही उन्होंने गोद लिए पुत्र को उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया और वे राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। आधा राज्य देने का लालच देकर उन्होंने राज्य के कुछ देशद्रोहियों को भी अपनी ओर मिला लिया। पर रानी चेन्नम्मा ने स्पष्ट उत्तर दिया कि उत्तराधिकारी का मामला हमारा अपना मामला है, अंग्रेज़ों का इससे कोई लेना-देना नहीं। साथ ही उसने अपनी जनता से कहा कि जब तक तुम्हारी रानी की नसों में रक्त की एक भी बूँद है, कित्तूर को कोई नहीं ले सकता।
रानी चेन्नम्मा ने कित्तूर में हो रही ब्रिटिश अधिकारियो की मनमानी को देखते हुए बॉम्बे प्रेसीडेंसी के गवर्नर को सन्देश भी भेजा था लेकिन इसका कोई फायदा नही हुआ था। जब यह तय हो गया कि अंग्रेज नहीं मानने वाले तो रानी चेन्नम्मा ने संघर्ष करने का फैसला लिया। वे पहली रानी थी जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ने के लिए सेना के गठन की तैयारी शुरू की। अंग्रेजों को इसका पता चला और 1824 में ने 20000 आदमियो और 400 बंदूको की विशाल सेना के साथ अंग्रेजो ने आक्रमण किया।
युद्ध के पहले राउंड में ब्रिटिश सेना का काफी पतन हो चूका था और कलेक्टर और राजनैतिक एजेंट जॉन थावकेराय की हत्या कर दी गयी थी। चेनम्मा का मुख्य सहयोगी बलप्पा ही ब्रिटिश सेना के पतन का मुख्य कारण बना था। इसके बाद दो ब्रिटिश अधिकारी सर वाल्टर इलियट और मी। स्टीवसन को भी बंदी बना लिया गया था। लेकिन फिर ब्रिटिशो के साथ समझौता कर उन्हें बाद में छोड़ दिया गया था और युद्ध को भी टाल दिया गया था। लेकिन ब्रिटिश अधिकारी चैपलिन ने दुसरो के साथ हो रहे युद्ध को जारी रखा था।
अंग्रेज़ों ने मद्रास और मुंबई से कुमुक मंगा कर फिर कित्तूर का किला घेर लिया। परन्तु उन्हें कित्तूर के देशभक्तों के सामने फिर पीछे हटना पड़ा। दो दिन बाद वे फिर शक्तिसंचय करके आ धमके। छोटे से राज्य के लोग काफ़ी बलिदान कर चुके थे। चेन्नम्मा के नेतृत्व में उन्होंने विदेशियों का फिर सामना किया, पर इस बार वे टिक नहीं सके। लढते-लढते ही उन्होंने बैल्होंगल किले में बंदी बना लिया गया था और वही 21 फरवरी 1829 में उनकी मृत्यु हो गयी थी। उनके अनेक सहयोगियों को फाँसी दे दी और कित्तूर की मनमानी लूट की।
आज भी पुणे-बेंगलूरु राष्ट्रीय राजमार्ग पर बेलगाम के पास कित्तूर का राजमहल तथा अन्य इमारतें गौरवशाली अतीत की याद दिलाने के लिए मौजूद हैं। नयी दिल्ली के पार्लिमेंट हाउस कॉम्पलेक्स में उनका स्टेचू भी बनवाया गया है। 11 सितम्बर 2007 को भारत की पहली महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इसका अनुकरण भी किया था। उनके सम्मान में उनकी एक प्रतिमा संसद भवन परिसर में भी लगाई गई है।
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