Aryabhatta / आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है। विज्ञान और गणित के क्षेत्र में उनके कार्य आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देते हैं। आर्यभट्ट उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का प्रयोग किया।
आर्यभट का परिचय – Aryabhatta Biography in Hindi
पूरा नाम | आर्यभट (Aryabhatta) |
जन्म दिनांक | 13 अप्रैल, सन 476 ई. |
जन्म भूमि | केरल |
मृत्यु | 550 ई. |
कर्म-क्षेत्र | ज्योतिषविद् और गणितज्ञ |
कर्म भूमि | भारत |
विद्यालय | नालन्दा विश्वविद्यालय |
मुख्य रचनाएँ | ‘आर्यभटीय’, ‘आर्यभट सिद्धांत’ |
विश्व गणित के इतिहास में भी आर्यभट का नाम सुप्रसिद्ध है। शून्य (0) की महान खोज ने आर्यभट का नाम इतिहास में अमर कर दिया। जिसके बिना गणित की कल्पना करना भी मुश्किल है। आर्यभट ने ही सबसे पहले स्थानीय मान पद्धति की व्याख्या की। खगोल और गणितशास्त्र, इन दोनों क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के स्मरणार्थ भारत के प्रथम उपग्रह का नाम आर्यभट रखा गया था।
प्रारंभिक जीवन – Early Life
आर्यभट्ट के जन्मस्थान के बारे में विवाद है। मतानुसार आर्यभट्ट का जन्म 13 अप्रैल, सन 476 में केरल में हुआ था। कुछ स्रोतों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक प्रदेश में हुआ था और कुछ तो मानते हैं की आर्यभट्ट जन्मस्थान कुसुमपुर (आधुनिक पटना)। इसी के आधार पर प्रसिद्ध अर्न्तराष्ट्रीय संस्था यूनेस्को ने आर्यभट्ट की 1500वीं जयंती मनाई थी।
वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए नालंदा विश्वविद्यालय में आए थे। यह विश्वविद्यालय उस समय शिक्षा का एक बहुत बड़ा केंद्र था। पढ़ाई के दौरान ही 23 वर्ष की आयु में उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी जिसकी सराहना करते हो वहां के तत्कालीन गुप्त शासक बुधगुप्त ने उन्हें उक्त विश्वविद्यालय का प्रधान बना दिया था। गुप्तकाल को भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है।
आर्यभट्ट की रचनाएँ – Aryabhatta contribution in hindi
एक बार विश्वविद्यालय में स्थित खगोल वेधशाला में एक आयोजन हुआ था, जिसमें खगोल विज्ञान पर आधारित एक पुस्तक का विमोचन किया जाना था। इस पुस्तक का नाम आर्यभट्टीय था, जो अब बाद में खगोल विज्ञान में एक नई विचारधारा का आधार बनी। आर्यभटीय उनके द्वारा किये गए कार्यों का प्रत्यक्ष विवरण प्रदान करता है। ऐसा माना जाता है कि आर्यभट्ट ने स्वयं इसे यह नाम नही दिया होगा बल्कि बाद के टिप्पणीकारों ने आर्यभटीय नाम का प्रयोग किया होगा। इसका उल्लेख भी आर्यभट्ट के शिष्य भास्कर प्रथम ने अपने लेखों में किया है। इस ग्रन्थ को कभी-कभी आर्य-शत-अष्ट (अर्थात आर्यभट्ट के 108 – जो की उनके पाठ में छंदों कि संख्या है) के नाम से भी जाना जाता है।
आर्यभट्ट ऐसा कहने वाले प्रथम व्यक्ति थे कि यह पृथ्वी गोल है जो अपनी धुरी पर घूमती है तथा इसकी इस क्रिया से ही दिन-रात बनते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि चंद्रमा पर पूर्णत: अन्धकार है और वह सूर्य का प्रकाश प्राप्त कर चमकता है। आर्यभट्ट ने अपने सूत्रों से यह सिद्ध किया कि एक वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं।
उनका सूर्य व चंद्रमा ग्रहण के विषय में विचार था कि ये ग्रहण राहु द्वारा सूर्य या चंद्र को हड़पने से नहीं होते, बल्कि पृथ्वी और चंद्रमा की छायाओं के कारण होते हैं। उनका विश्वास और मत था कि पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र है। आर्यभट्ट ने तारो की गतिशीलता को सिद्ध करने के लिए अधिचक्र(Epicycles) का इस्तेमाल किया। यह उपयोग यूनानी राजा टोलमी की प्रणाली को मात कर गया था, जिसे सभी ने सराहा था।
गणित में भी आर्यभट्ट का योगदान समान महत्व रखता है। उन्होंने पाई का मान 3.1416 बताया और पहली बार कहा कि यह सन्नितमान हैं और वे ही पहले गणित्यग थे, जिन्होंने ज्या सारणी (Table of sines) दी। उनकी अनिर्धारित समीकरण (Undetermined equation) की हाल पद्वति जैसे एक एक्स-बी वाई-सी आज कुल दुनिया के गणित के छात्र और ज्ञाता जानते हैं। आर्यभटीय में कुल 108 छंद है, साथ ही परिचयात्मक 13 अतिरिक्त हैं। यह चार पदों अथवा अध्यायों में विभाजित है
उन्होंने बड़ी संख्याओ, 1,00,00,00,00,000 को शब्दों में लिखने का नया तरीका इजाद किया। वे बड़ी-बड़ी संख्याओं को कविता की भाषा में व्यक्त करते थे। ऐसा प्रतित होता है कि वे शून्य का चिन्ह जानते थे। आर्यभट ने बडी संख्याओं को संक्षेप में लिखने की विधि दी हैं, जैसे की 1 के लिए ’अ’, और 100 के लिए ’इ’ 10000 के लिए ’उ’ 10 अरब के लिए ’ए’ इत्यादि।
संक्षिप्त रूप में लिखे और कठिनाई से समझ आने वाले आर्यभटीय में गणित तथा खगोल शास्त्र की गणना के दूसरे पहलुओं पर भी जैसे रेखा गणित, विस्तार कलन, वर्गमूल, घनमूल, प्रोग्रेशन और खगोल आकृतियों पर भी प्रकाश डाला।
आर्यभट ने आकाश में खगोलिया पिण्ड की स्थिति के बारे में भी ज्ञान दिया। आर्यभट का विश्वास था कि आकाशीय पिण्डों के आभासी घुर्णन धरती के अक्षीय घुर्णन के कारण संभव है। यह सौरमण्डल की प्रकृति या स्वभाव की महत्वपूर्ण अवधारणा है। परन्तू इस विचार को त्रुटिपूर्ण मानकर बाद के विचारकों ने इसे छोड दिया था।
यह हैरान और आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि आजकल के उन्नत साधनों के बिना ही उन्होंने लगभग डेढ़ हजार साल पहले ही आर्यभट्ट ने ज्योतिषशास्त्र की खोज की थी। वैज्ञानिक निकोलस कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले ही कर चुके थे। “गोलपाद” में आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।
इस महान गणितग्य के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 % कम है।
अपनी वृद्धावस्था में आर्यभट्ट ने एक और पुस्तक ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ के नाम से लिखी। यह दैनिक खगोलीय गणना और अनुष्ठानों के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने में काम आती थी। आज भी पंचांग बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओ का उपयोग किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि ‘आर्यभट्ट सिद्धांत’ का सातवीं शदी में व्यापक उपयोग होता था। सम्प्रति में इस ग्रन्थ के केवल 34 श्लोक ही उपलब्ध हैं और इतना उपयोगी ग्रंथ लुप्त कैसे हो गया इस विषय में भी विद्वानों के पास कोई निश्चित जानकारी नहीं है।
मृत्यु –
आर्यभट की मृत्यु 550 में मानी जाती है। आर्यभट का जीवनकाल जिसे ‘गुप्त काल’ या ‘सुवर्ण युग’ के नाम से जाना जाता है, उस समय भारत ने साहित्य, कला और विज्ञान क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति की। प्राचीन काल में भारतीय गणित और ज्योतिष शास्त्र अत्यंत उन्नत था। गणित और खगोल विज्ञान के क्षेत्र में उनके योगदान की स्मृति में ही भारत के पहले उपग्रह का नाम आर्यभट्ट रखा गया है।
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