भाग 6: राज्य: अध्याय 3- राज्य का विधान-मंडल / State Legislature
साधारण
- राज्यों के विधान-मंडलों का गठन –(1) प्रत्येक राज्य के लिए एक विधान-मंडल होगा जो राज्यपाल और —
(क)1***बिहार, 2*** 3-4*** : 5[महाराष्ट्र], 6[कर्नाटक] 7***8[और उत्तर प्रदेश] राज्यों में दो सदनों से;
(ख) अन्य राज्यों में एक सदन से,
मिलकर बनेगा।
(2) किसी राज्य के विधान-मंडल के दो सदन हैं वहां एक का नाम विधान परिषद और दूसरे का नाम विधानसभा होगा और केवल एक सदन है वहां उसका नाम विधानसभा होगा।169. राज्यों में विधान परिषदों का उत्सादन या सृजन –(1) अनुच्छेद 168 में किसी बात के होते हुए भी, संसद विधि द्वारा किसी विधान परिषद वाले राज्य में विधान परिषद के उत्सादन के लिए या ऐसे राज्य में, जिसमें विधान परिषद नहीं है, विधान परिषद के सृजन के लिए उपबंध कर सकेगी, यदि उस राज्य की विधानसभा ने इस आशय का संकल्प विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया है।
(2) खंड (1) में विनिर्दिष्ट किसी विधि में इस संविधान के संशोधन के लिए ऐसे उपबंध अंतर्विष्ट होंगे जो उस विधि के उपबंधों को प्रभावी करने के लिए आवश्यक हों तथा ऐसे अनुपूरक, आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध भी अंतर्विष्ट हो सकेंगे जिन्हें संसद आवश्यक समझे।
(3) पूर्वोक्त प्रकार की कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझी जाएगी।
1 ” आंध्र प्रदेश” शब्दों का आंध्र प्रदेश विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1985 (1985 का 34) की धारा 4 द्वारा (1-6-1985 से) लोप किया गया।
2 मुंबई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का 11) की धारा 20 द्वारा (1-5-1960 से) ” मुंबई” शब्द का लोप किया गया।
3 इस उपखंड में ” मध्य प्रदेश” शब्दों के अंतःस्थापन के लिए संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 8(2) के अधीन कोई तारीख नियत नहीं की गई है।
4 तमिलनाडु विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1986 (1986 का 40) की धारा 4 द्वारा (1-11-1986 से) ” तमिलनाडु” शब्द का लोप किया गया।
5 मुबंई पुनर्गठन अधिनियम, 1960 (1960 का 11) की धारा 20 द्वारा (1-5-1960 से ) अंतःस्थापित।
6 मैसूर राज्य (नाम-परिवर्तन) अधिनियम, 1973 (1973 का 31) की धारा 4 द्वारा (1-11-1973 से) ” मैसूर” के स्थान पर प्रतिस्थापित जिसे संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 8(1) द्वारा अंतःस्थापित किया गया था।
7 पंजाब विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1969 (1969 का 46) की धारा 4 द्वारा (7-1-1970 से) ” पंजाब” शब्द का लोप किया गया।
8 पश्चिमी बंगाल विधान परिषद (उत्सादन) अधिनियम, 1969 (1969 का 20) की धारा 4 द्वारा (1-8-1969 से) ” उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बंगाल” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
- विधानसभाओं की संरचना –(1) अनुच्छेद 333 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक राज्य की विधानसभा उस राज्य में प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए पाँच सौ से अनधिक और साठ से अन्यून सदस्यों से मिलकर बनेगी।
(2) खंड (1) के प्रयोजनों के लिए, प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाएगा कि प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासापय एक ही हो।
स्पष्टीकरण–इस खंड में ” जनसंख्या” पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं :
परंतु इस स्पष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति जिसके सुसंगत आँकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का, जब तक सन् 2026 के पश्चात् की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह 2001 की जनगणना के प्रतिनिर्देश है।
(3) प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रत्येक राज्य की विधानसभा में स्थानों की कुल संख्या और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसी रीति से पुनःसमायोजन किया जाएगा जो संसद विधि द्वारा अवधारित करे :
परंतु ऐसे पुन: समायोजन से विधानसभा में प्रतिनिधित्व पद पर तब तक कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा जब तक उस समय विद्यमान विधानसभा का विघटन नहीं हो जाता है :
परंतु यह और कि ऐसा पुन: समायोजन उस तारीख से प्रभावी होगा जो राष्ट्रपति आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे और ऐसे पुन: समायोजन के प्रभावी होने तक विधानसभा के लिए कोई निर्वाचन उन प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों के आधार पर हो सकेगा जो ऐसे पुन: समायोजन के पहले विद्यमान हैं :
परंतु यह और भी कि जब तक सन् : 2026 के पश्चात् की गई पहली जनगणना के सुसंगत आँकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं तब तक : इस खंड के अधीन,–
(i) प्रत्येक राज्य की विधानसभा में 1971 की जनगणना के आधार पर पुन: समायोजित स्थानों की कुल संख्या का; और
(ii) ऐसे राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में विभाजन का, जो 2001 की जनगणना के आधार पर पुन: समायोजित किए जाएँ,
पुन: समायोजन आवश्यक नहीं होगा।
171. विधान परिषदों की संरचना –(1) विधान परिषद वाले राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या उस राज्य की विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के एक-तिहाई से अधिक नहीं होगी:
परंतु किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या किसी भी दशा में चालीस से कम नहीं होगी।
(2) जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक किसी राज्य की विधान परिषद की संरचना खंड (3) में उपबंधित रीति से होगी।
(3) किसी राज्य की विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या का —
1 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 9 द्वारा अनुच्छेद 170 के स्थान पर प्रतिस्थापित।
2 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 29 द्वारा (3-1-1977 से) स्पष्टीकरण के स्थान पर प्रतिस्थापित।
3 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 5 द्वारा प्रतिस्थापित।
4 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 4 द्वारा प्रतिस्थापित।
5 संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 29 द्वारा (3-1-1977 से) अंतःस्थापित।
6 संविधान (चौरासीवाँ संशोधन) अधिनियम 2001 की धारा 5 द्वारा क्रमशः अंकों और शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित।
7 संविधान (सतासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 की धारा 4 द्वारा प्रतिस्थापित।
8 संविधान (सातवाँ संशोधन) अधिनियम, 1956 की धारा 10 द्वारा ” एक चौथाई” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
(क) यथाशक्य निकटतम एक-तिहाई भाग उस राज्य की नगरपालिकाओं, जिला बोर्र्डों और अन्य ऐसे स्थानीय प्राधिकारियों के, जो संसद विधि द्वारा विनिर्दिष्ट करे, सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा;
(ख) यथाशक्य निकटतम बारहवाँ भाग उस राज्य में निवास करने वाले ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा, जो भारत के राज्यक्षेत्र में किसी विश्वविद्यालय के कम से कम तीन वर्ष से स्नातक हैं या जिनके पास कम से कम तीन वर्ष से ऐसी अर्हताएँ हैं जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि या उसके अधीन ऐसे किसी विश्वविद्यालय के स्नातक की अर्हताओं के समतुल्य विहित की गई हों;
(ग) यथाशक्य निकटतम बारहवाँ भाग ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक-मंडलों द्वारा निर्वाचित होगा जो राज्य के भीतर माध्यमिक पाठशालाओं से निम्न स्तर की ऐसी शिक्षा संस्थाओं में, जो संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएँ, पढ़ाने के काम में कम से कम तीन वर्ष से लगे हुए हैं;
(घ) यथाशक्य निकटतम एक-तिहाई भाग राज्य की विधानसभा के सदस्यों द्वारा ऐसे व्यक्तियों में से निर्वाचित होगा जो विधानसभा के सदस्य नहीं हैं;
(ङ) शेष सदस्य राज्यपाल द्वारा खंड (5) के उपबंधों के अनुसार नामनिर्देशित किए जाएँगे।
(4) खंड (3) के उपखंड (क), उपखंड (ख) और उपखंड (ग) के अधीन निर्वाचित होने वाले सदस्य ऐसे प्रादेशिक निर्वाचन-क्षेत्रों में चुने जाएँगे, जो संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किए जाएं तथा उक्त उपखंडों के और उक्त खंड के उपखंड (घ) के अधीन निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होंगे।
(5) राज्यपाल द्वारा खंड (3) के उपखंड (ङ) के अधीन नामनिर्देशित किए जाने वाले सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें निम्नलिखित विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है, अर्थात् :– साहित्य, विज्ञान, कला, सहकारी आंदोलन और समाज सेवा।
172. राज्यों के विधान-मंडलों की अवधि –(1) प्रत्येक राज्य की प्रत्येक विधानसभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से पाँच वर्ष तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और पाँच वर्ष की उक्त अवधि की समाप्ति का परिणाम विधानसभा का विघटन होगा:
परंतु उक्त अवधि को, जब आपात् की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, तब संसद विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात् किसी भी दशा में उसका विस्तार छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा।
(2) राज्य की विधान परिषद का विघटन नहीं होगा, किंतु उसके सदस्यों में से यथासंभव निकटतम एक-तिहाई सदस्य संसद द्वारा विधि द्वारा इस निमित्त बनाए गए उपबंधों के अनुसार, प्रत्येक द्वितीय वर्ष की समाप्ति पर यथाशक्य शीघ्र निवृत्त हो जाएँगे।
173. राज्य के विधान-मंडल की सदस्यता के लिए अर्हता –कोई व्यक्ति किसी राज्य में विधान-मंडल के किसी स्थान को भरने के लिए चुने जाने के लिए अर्हत तभी होगा जब —
(क) वह भारत का नागरिक है और निर्वाचन आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत किसी व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्ररूप के अनुसार शपथ लेता है या प्रतिज्ञान करता है और उस पर अपने हस्ताक्षर करता है;
(ख) वह विधानसभा के स्थान के लिए कम से कम पच्चीस वर्ष की आयु का और विधान परिषद के स्थान के लिए कम से कम तीस वर्ष की आयु का है; और
1 संविधान (चवालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 24 द्वारा (6-9-1979 से) ” छह वर्ष” के स्थान पर प्रतिस्थापित। संविधान (बयालीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 30 द्वारा (3-1-1977 से) मूल शब्दों ” पाँच वर्ष” के स्थान पर ” छह वर्ष” प्रतिस्थापित किए गए थे।
2 संविधान (सोलहवाँ संशोधन) अधिनियम, 1963 की धारा 4 द्वारा खंड (क ) के स्थान पर प्रतिस्थापित।
(ग) उसके पास ऐसी अन्य अर्हताएँ हैं जो इस निमित्त संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन विहित की जाएं।
- राज्य के विधान-मंडल के सत्र, सत्रावसान और विघटन –(1) राज्यपाल, समय-समय पर, राज्य के विधान-मंडल के सदन या प्रत्येक सदन को ऐसे समय और स्थान पर, जो वह ठीक समझे, अधिवेशन के लिए आहूत करेगा, किंतु उसके एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के लिए नियत तारीख के बीच छह मास का अंतर नहीं होगा।
(2) राज्यपाल, समय-समय पर,—
(क) सदन का या किसी सदन का सत्रावसान कर सकेगा;
(ख) विधानसभा का विघटन कर सकेगा। - सदन या सदनों में अभिभाषणका और उनको संदेश भेजने का राज्यपाल का अधिकार –(1) राज्यपाल, विधानसभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में उस राज्य के विधान-मंडल के किसी एक सदन में या एक साथ समवेत दोनों सदनों में, अभिभाषण कर सकेगा और इस प्रयोजन के लिए सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकेगा।
(2) राज्यपाल, राज्य के विधान-मंडल में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश, उस राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को भेज सकेगा और जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया है वह सदन उस संदेश द्वारा विचार करने के लिए अपेक्षित विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करेगा। - राज्यपाल का विशेष अभिभाषण –(1) राज्यपाल, विधानसभा के लिए प्रत्येक साधारण निर्वाचन के पश्चात् प्रथम सत्र के आरंभ में और प्रत्येक वर्ष के प्रथम सत्र के आरंभ मेंट विधानसभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में एक साथ समवेत दोनों सदनों में अभिभाषण करेगा और विधान-मंडल को उसके आह्वान के कारण बताएगा।
(2) सदन या प्रत्येक सदन की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों द्वारा ऐसे अभिभाषण में निर्दिष्ट विषयों की चर्चा के लिए समय नियत करने के लिए 3*** उपबंध किया जाएगा। - सदनों के बारे में मंत्रियों और महाधिवक्ता के अधिकार –प्रत्येक मंत्री और राज्य के महाधिवक्ता को यह अधिकार होगा कि वह उस राज्य की विधानसभा में या विधान परिषद वाले राज्य की दशा में दोनों सदनों में बोले और उनकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले और विधान-मंडल की किसी समिति में, जिसमें उसका नाम सदस्य के रूप में दिया गया है, बोले और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग ले, किन्तु इस अनुच्छेद के आधार पर वह मत देने का हकदार नहीं होगा।
राज्य के विधान–मंडल के अधिकारी
78. विधानसभा का अध्यक्ष और उपाध्यक्ष –प्रत्येक राज्य की विधानसभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब विधानसभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।
179. अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना –विधानसभा के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य–
(क) यदि विधानसभा का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा;
(ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य अध्यक्ष है तो उपाध्यक्ष को संबोधित और यदि वह सदस्य उपाध्यक्ष है तो अध्यक्ष को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और
1 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 8 द्वारा अनुच्छेद 174 के स्थान पर प्रतिस्थापित।
2 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा ” प्रत्येक सत्र” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
3 संविधान (पहला संशोधन) अधिनियम, 1951 की धारा 9 द्वारा ” तथा सदन के अन्य कार्य पर इस चर्चा को अग्रता देने के लिए” शब्दों का लोप किया गया।
(ग) विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा: परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो:
परंतु यह और कि जब कभी विधानसभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात् होने वाले विधानसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा।
- अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की शक्ति–(1) जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तो उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो विधानसभा का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
(2) विधानसभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधानसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधानसभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।
- जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना –(1) विधानसभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 180 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वह उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है।
(2) जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधानसभा में विचाराधीन है तब उसको विधानसभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमतथ ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा।
- विधान परिषद का सभापति और उपसभापति –विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी और जब-जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त होता है तब-तब परिषद किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति चुनेगी।
183. सभापति और उपसभापति का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना–विधान परिषद के सभापति या उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य–
(क) यदि विधान परिषद का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा;
(ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य सभापति है तो उपसभापति को संबोधित और यदि वह सदस्य उपसभापति है तो सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और
(ग) विधान परिषद के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा:
परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो।
184. सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन करने या सभापति के रूप में कार्य करने की उपसभापति या अन्य व्यक्ति की शक्ति–(1) जब सभापति का पद रिक्त है तब उपसभापति, यदि उपसभापति का पद भी रिक्त है तो विधान परिषद का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
(2) विधान परिषद की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधान परिषद की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधान परिषद द्वारा अवधारित किया जाए, सभापति के रूप में कार्य करेगा।
(ग) विधानसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा:
परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो:
परंतु यह और कि जब कभी विधानसभा का विघटन किया जाता है तो विघटन के पश्चात् होने वाले विधानसभा के प्रथम अधिवेशन के ठीक पहले तक अध्यक्ष अपने पद को रिक्त नहीं करेगा।
180. अध्यक्ष के पद के कर्तव्यों का पालन करने या अध्यक्ष के रूप में कार्य करने की उपाध्यक्ष या अन्य व्यक्ति की शक्ति –(1) जब अध्यक्ष का पद रिक्त है तो उपाध्यक्ष, या यदि उपाध्यक्ष का पद भी रिक्त है तो विधानसभा का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
(2) विधानसभा की किसी बैठक से अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधानसभा की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधानसभा द्वारा अवधारित किया जाए, अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।
- जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष को पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उसका पीठासीन न होना –(1) विधानसभा की किसी बैठक में, जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब अध्यक्ष, या जब उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विचाराधीन है तब उपाध्यक्ष, उपस्थित रहने पर भी, पीठासीन नहीं होगा और अनुच्छेद 180 के खंड (2) के उपबंध ऐसी प्रत्येक बैठक के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वह उस बैठक के संबंध में लागू होते हैं जिससे, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अनुपस्थित है।
(2) जब अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का कोई संकल्प विधानसभा में विचाराधीन है तब उसको विधानसभा में बोलने और उसकी कार्यवाहियों में अन्यथा भाग लेने का अधिकार होगा और वह अनुच्छेद 189 में किसी बात के होते हुए भी, ऐसे संकल्प पर या ऐसी कार्यवाहियों के दौरान किसी अन्य विषय पर प्रथमतथ ही मत देने का हकदार होगा किंतु मत बराबर होने की दशा में मत देने का हकदार नहीं होगा।
- विधान परिषद का सभापति और उपसभापति –विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद, यथाशीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना सभापति और उपसभापति चुनेगी और जब-जब सभापति या उपसभापति का पद रिक्त होता है तब-तब परिषद किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, सभापति या उपसभापति चुनेगी।
- सभापति और उपसभापति का पद रिक्त होना, पदत्याग और पद से हटाया जाना –विधान परिषद के सभापति या उपसभापति के रूप में पद धारण करने वाला सदस्य–
(क) यदि विधान परिषद का सदस्य नहीं रहता है तो अपना पद रिक्त कर देगा ;
(ख) किसी भी समय, यदि वह सदस्य सभापति है तो उपसभापति को संबोधित और यदि वह सदस्य उपसभापति है तो सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा; और
(ग) विधान परिषद के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटाया जा सकेगा:
परंतु खंड (ग) के प्रयोजन के लिए कोई संकल्प तब तक प्रस्तावित नहीं किया जाएगा जब तक कि उस संकल्प को प्रस्तावित करने के आशय की कम से कम चौदह दिन की सूचना न दे दी गई हो।
184. सभापति के पद के कर्तव्यों का पालन करने या सभापति के रूप में कार्य करने की उपसभापति या अन्य व्यक्ति की शक्ति –(1) जब सभापति का पद रिक्त है तब उपसभापति, यदि उपसभापति का पद भी रिक्त है तो विधान परिषद का ऐसा सदस्य, जिसको राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उस पद के कर्तव्यों का पालन करेगा।
(2) विधान परिषद की किसी बैठक से सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति, या यदि वह भी अनुपस्थित है तो ऐसा व्यक्ति, जो विधान परिषद की प्रक्रिया के नियमों द्वारा अवधारित किया जाए, या यदि ऐसा कोई व्यक्ति उपस्थित नहीं है तो ऐसा अन्य व्यक्ति, जो विधान परिषद द्वारा अवधारित किया जाए, सभापति के रूप में कार्य करेगा।
185. The Chairman or the Deputy Chairman not to preside while a resolution for his removal from office is under consideration.—(1) At any sitting of the Legislative Council, while any resolution for the removal of the Chairman from his office is under consideration, the Chairman, or while any resolution for the removal of the Deputy Chairman from his office is under consideration, the Deputy Chairman, shall not, though he is present, preside, and the provisions of clause (2) of article 184 shall apply in relation to every such sitting as they apply in relation to a sitting from which the Chairman or, as the case may be, the Deputy Chairman is absent.
(2) The Chairman shall have the right to speak in, and otherwise to take part in the proceedings of, the Legislative Council while any resolution for his removal from office is under consideration in the Council and shall, notwithstanding anything in article 189, be entitled to vote only in the first instance on such resolution or on any other matter during such proceedings but not in the case of an equality of votes.
186. Salaries and allowances of the Speaker and Deputy Speaker and the Chairman and Deputy Chairman. —There shall be paid to the Speaker and the Deputy Speaker of the Legislative Assembly, and to the Chairman and the Deputy Chairman of the Legislative Council, such salaries and allowances as may be respectively fixed by the Legislature of the State by law and, until provision in that behalf is so made, such salaries and allowances as are specified in the Second Schedule.
187. Secretariat of State Legislature.—(1) The House or each House of the Legislature of a State shall have a separate secretarial staff:
Provided that nothing in this clause shall, in the case of the Legislature of a State having a Legislative Council, be construed as preventing the creation of posts common to both Houses of such Legislature.
(2) The Legislature of a State may by law regulate the recruitment, and the conditions of service of persons appointed, to the secretarial staff of the House or Houses of the Legislature of the State.
(3) Until provision is made by the Legislature of the State under clause (2), the Governor may, after consultation with the Speaker of the Legislative Assembly or the Chairman of the Legislative Council, as the case may be, make rules regulating the recruitment, and the conditions of service of persons appointed, to the secretarial staff of the Assembly or the Council, and any rules so made shall have effect subject to the provisions of any law made under the said clause.
Conduct of Business
188. Oath or affirmation by members. —Every member of the Legislative Assembly or the Legislative Council of a State shall, before taking his seat, make and subscribe before the Governor, or some person appointed in that behalf by him, an oath or affirmation according to the form set out for the purpose in the Third Schedule.
189. Voting in Houses, power of Houses to act notwithstanding vacancies and quorum. —(1) Save as otherwise provided in this Constitution, all questions at any sitting of a House of the Legislature of a State shall be determined by a majority of votes of the members present and voting, other than the Speaker or Chairman, or person acting as such.
The Speaker or Chairman, or person acting as such, shall not vote in the first instance, but shall have and exercise a casting vote in the case of an equality of votes.
(2) A House of the Legislature of a State shall have power to act notwithstanding any vacancy in the membership thereof, and any proceedings in the Legislature of a State shall be valid notwithstanding that it is discovered subsequently that some person who was not entitled so to do sat or voted or otherwise took part in the proceedings.
(3) Until the Legislature of the State by law otherwise provides, the quorum to constitute a meeting of a House of the Legislature of a State shall be ten members or one-tenth of the total number of members of the House, whichever is greater.
(4) If at any time during a meeting of the Legislative Assembly or the Legislative Council of a State there is no quorum, it shall be the duty of the Speaker or Chairman, or person acting as such, either to adjourn the House or to suspend the meeting until there is a quorum.
सदस्यों की निरर्हताएँ
- स्थानों का रिक्त होना –(1) कोई व्यक्ति राज्य के विधान-मंडल के दोनों सदनों का सदस्य नहीं होगा और जो व्यक्ति दोनों सदनों का सदस्य चुन लिया जाता है उसके एक या दूसरे सदन के स्थान को रिक्त करने के लिए उस राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा उपबंध करेगा।
(2) कोई व्यक्ति पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट दो या अधिक राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य नहीं होगा और यदि कोई व्यक्ति दो या अधिक ऐसे राज्यों के विधान-मंडलों का सदस्य चुन लिया जाता है तो ऐसी अवधि की समाप्ति के पश्चात् जो राष्ट्रपति द्वारा बनाए गए नियमों1 में विनिर्दिष्ट की जाए, ऐसे सभी राज्यों के विधान-मंडलों में ऐसे व्यक्ति का स्थान रिक्त हो जाएगा यदि उसने एक राज्य को छोड़कर अन्य राज्यों के विधान-मंडलों में अपने स्थान को पहले ही नहीं त्याग दिया है।
(3) यदि राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य–
(क) अनुच्छेद 191 के खंड (2) में वर्णित किसी निरर्हता से ग्रस्त हो जाता है, या
(ख) यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने स्थान का त्याग कर देता है और उसका त्यागपत्र, यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है,
तो ऐसा होने पर उसका स्थान रिक्त हो जाएगा :
परंतु उपखंड (ख) में निर्दिष्ट त्यागपत्र की दशा में, यदि प्राप्त जानकारी से या अन्यथा और ऐसी जाँच करने के पश्चात्, जो वह ठीक समझे, यथास्थिति, अध्यक्ष या सभापति का यह समाधान हो जाता है कि ऐसा त्यागपत्र स्वैच्छिक या असली नहीं है तो वह ऐसे त्यागपत्र को स्वीकार नहीं करेगा।
(4) यदि किसी राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन का सदस्य साठ दिन की अवधि तक सदन की अनुज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों से अनुपस्थित रहता है तो सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकेगा:
परंतु साठ दिन की उक्त अवधि की संगणना करने में किसी ऐसी अवधि को हिसाब में नहीं लिया जाएगा जिसके दौरान सदन सत्रावसित या निरंतर चार से अधिक दिनों के लिए स्थगित रहता है।
- सदस्यता के लिए निरर्हताएँ –(1) कोई व्यक्ति किसी राज्य की विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य चुने जाने के लिए और सदस्य होने के लिए निरर्हित होगा–
(क) यदि वह भारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन, ऐसे पद को छोड़कर जिसको धारण करने वाले का निरर्हित न होना राज्य के विधान-मंडल ने विधि द्वारा घोषित किया है, कोई लाभ का पद धारण करता है;
(ख) यदि वह विकृतचित्त है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है;
(ग) यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है;
(घ) यदि वह भारत का नागरिक नहीं है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रति निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है;
(ङ) यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया जाता है।
स्पष्टीकरण –इस खंड के प्रयोजनों के लिए, कोई व्यक्ति केवल इस कारण भारत सरकार के या पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी राज्य की सरकार के अधीन लाभ का पद धारण करने वाला नहीं समझा जाएगा कि वह संघ का या ऐसे राज्य का मंत्री है।
1 देखिए विधि मंत्रालय की अधिसूचना सं.एफ. 46/50-सी, दिनांक 26 जनवरी, 1950, भारत का राजपत्र, असाधारण, पृष्ठ 678 में प्रकाशित समसामयिक सदस्यता प्रतिषेध नियम, 1950।
2 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 4 द्वारा (1-3-1985 से) ” अनुच्छेद 191 के खंड (1)” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
3 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा उपखंड (ख) के स्थान पर प्रतिस्थापित।
4 संविधान (तैंतीसवाँ संशोधन) अधिनियम, 1974 की धारा 3 द्वारा अंतःस्थापित।
5 संविधान (बावनवाँ संशोधन) अधिनियम, 1985 की धारा 5 द्वारा (1-3-1985 से) ” (2) इस अनुच्छेद के प्रयोजनों के लिए” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
(2) अनुच्छेद 197 और अनुच्छेद 198 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, कोई विधेयक विधान परिषद वाले राज्य के विधान-मंडल के सदनों द्वारा तब तक पारित किया गया नहीं समझा जाएगा जब तक संशोधन के बिना या केवल ऐसे संशोधनों सहित, जिन पर दोनों सदन सहमत हो गए हैं, उस पर दोनों सदन सहमत नहीं हो जाते हैं।
(3) किसी राज्य के विधानमंडल में लंबित विधेयक उसके सदन या सदनों के सत्रावसान के कारण व्यपगत नहीं होगा।
(4) किसी राज्य की विधान परिषद में लंबित विधेयक, जिसको विधानसभा ने पारित नहीं किया है, विधानसभा के विघटन पर व्यपगत नहीं होगा।
(5) कोई विधेयक, जो किसी राज्य की विधानसभा में लंबित है या जो विधानसभा द्वारा पारित कर दिया गया है और विधान परिषद में लंबित है, विधानसभा के विघटन पर व्यपगत हो जाएगा।
2[192. Decision on questions as to disqualifications of members.—(1) If any question arises as to whether a member of a House of the Legislature of a State has become subject to any of the disqualifications mentioned in clause (1) of article 191, the question shall be referred for the decision of the Governor and his decision shall be final.
(2) Before giving any decision on any such question, the Governor shall obtain the opinion of the Election Commission and shall act according to such opinion.]
193. Penalty for sitting and voting before making oath or affirmation under article 188 or when not qualified or when disqualified.—If a person sits or votes as a member of the Legislative Assembly or the Legislative Council of a State before he has complied with the requirements of article 188, or when he knows that he is not qualified or that he is disqualified for membership thereof, or that he is prohibited from so doing by the provisions of any law made by Parliament or the Legislature of the State, he shall be liable in respect of each day on which he so sits or votes to a penalty of five hundred rupees to be recovered as a debt due to the State.
Powers, Privileges and Immunities of State Legislatures and their Members
194. Powers, privileges, etc., of the Houses of Legislatures and of the members and committees thereof.—(1) Subject to the provisions of this Constitution and to the rules and standing orders regulating the procedure of the Legislature, there shall be freedom of speech in the Legislature of every State.
(2) No member of the Legislature of a State shall be liable to any proceedings in any court in respect of anything said or any vote given by him in the Legislature or any committee thereof, and no person shall be so liable in respect of the publication by or under the authority of a House of such a Legislature of any report, paper, votes or proceedings.
(3) In other respects, the powers, privileges and immunities of a House of the Legislature of a State, and of the members and the committees of a House of such Legislature, shall be such as may from time to time be defined by the Legislature by law, and, until so defined, 3[shall be those of that House and of its members and committees immediately before the coming into force of section 26 of the Constitution (Forty-fourth Amendment) Act, 1978].
(4) The provisions of clauses (1), (2) and (3) shall apply in relation to persons who by virtue of this Constitution have the right to speak in, and otherwise to take part in the proceedings of, a House of the Legislature of a State or any committee thereof as they apply in relation to members of that Legislature.
195. Salaries and allowances of members. —Members of the Legislative Assembly and the Legislative Council of a State shall be entitled to receive such salaries and allowances as may from time to time be determined, by the Legislature of the State by law and, until provision in that respect is so made, salaries and allowances at such rates and upon such conditions as were immediately before the commencement of this Constitution applicable in the case of members of the Legislative Assembly of the corresponding Province.
Legislative Procedure
196. Provisions as to introduction and passing of Bills.—(1) Subject to the provisions of articles 198 and 207 with respect to Money Bills and other financial Bills, a Bill may originate in either House of the Legislature of a State which has a Legislative Council.
- धन विधेयकों से भिन्न विधेयकों के बारे में विधान परिषद की शक्तियों पर निर्बंधन –(1) यदि विधान परिषद वाले राज्य की विधानसभा द्वारा किसी विधेयक के पारित किए जाने और विधान परिषद को पारेषित किए जाने के पश्चात्–
(क) विधान परिषद द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, या
(ख) विधान परिषद के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना, तीन मास से अधिक बीत गए हैं, या
(ग) विधान परिषद द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित किया जाता है जिनसे विधानसभा सहमत नहीं होती है,
तो विधानसभा विधेयक को, अपनी प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों के अधीन रहते हुए, उसी या किसी पश्चात्वर्ती सत्र में ऐसे संशोधनों सहित या उसके बिना, यदि कोई हों, जो विधान परिषद ने किए हैं, सुझाए हैं या जिनसे विधान परिषद सहमत है, पुनःपारित कर सकेगी और तब इस प्रकार पारित विधेयक को विधान परिषद को पारेषित कर सकेगी।
(2) यदि विधानसभा द्वारा विधेयक इस प्रकार दुबारा पारित कर दिए जाने और विधान परिषद को पारेषित किए जाने के पश्चात् —
(क) विधान परिषद द्वारा विधेयक अस्वीकार कर दिया जाता है, या
(ख) विधान परिषद के समक्ष विधेयक रखे जाने की तारीख से, उसके द्वारा विधेयक पारित किए बिना, एक मास से अधिक बीत गया है, या
(ग) विधान परिषद द्वारा विधेयक ऐसे संशोधनों सहित पारित किया जाता है जिनसे विधानसभा सहमत नहीं होती है,
तो विधेयक राज्य के विधान-मंडल के सदनों द्वारा ऐसे संशोधनों सहित, यदि कोई हों, जो विधान परिषद ने किए हैं या सुझाए हैं और जिनसे विधानसभा सहमत है, उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा दुबारा पारित किया गया था।
(3) इस अनुच्छेद की कोई बात धन विधेयक को लागू नहीं होगी।
198. धन विधेयकों के संबंध में विशेष प्रक्रिया –(1) धन विधेयक विधान परिषद में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा।
(2) धन विधेयक विधान परिषद वाले राज्य की विधानसभा द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् विधान परिषद को उसकी सिफारिशों के लिए पारेषित किया जाएगा और विधान परिषद विधेयक की प्राप्ति की तारीख से चौदह दिन की अवधि के भीतर विधेयक को अपनी सिफारिशों सहित विधानसभा को लौटा देगी और ऐसा होने पर विधानसभा, विधान परिषद की सभी या किन्हीं सिफारिशों को स्वीकार या अस्वीकार कर सकेगी।
(3) यदि विधानसभा, विधान परिषद की किसी सिफारिश को स्वीकार कर लेती है तो धन विधेयक विधान परिषद द्वारा सिफारिश किए गए और विधानसभा द्वारा स्वीकार किए गए संशोधनों सहित दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जाएगा।
(4) यदि विधानसभा, विधान परिषद की किसी भी सिफारिश को स्वीकार नहीं करती है तो धन विधेयक विधान परिषद द्वारा सिफारिश किए गए किसी संशोधन के बिना, दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा पारित किया गया था।
(5) यदि विधानसभा द्वारा पारित और विधान परिषद को उसकी सिफारिशों के लिए पारेषित धन विधेयक उक्त चौदह दिन की अवधि के भीतर विधानसभा को नहीं लौटाया जाता है तो उक्त अवधि की समाप्ति पर वह दोनों सदनों द्वारा उस रूप में पारित किया गया समझा जाएगा जिसमें वह विधानसभा द्वारा पारित किया गया था।
199. ” धन विधेयक” की परिभाषा –(1) इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, कोई विधेयक धन विधेयक समझा जाएगा यदि उसमें केवल निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों से संबंधित उपबंध हैं, अर्थात् —
(क) किसी कर का अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन;
(ख) राज्य द्वारा धन उधार लेने का या कोई प्रत्याभूति देने का विनियमन अथवा राज्य द्वारा अपने। पर ली गई या ली जाने वाली किन्हीं वित्तीय बाध्यताओं से संबंधित विधि का संशोधन;
(ग) राज्य की संचित निधि या आकस्मिकता निधि की ओंभरक्षा, ऐसी किसी निधि में धन जमा करना या उसमें से धन निकालना;
(घ) राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग;
(ङ) किसी व्यय को राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित करना या ऐसे किसी व्यय की रकम को बढ़ाना;
(च) राज्य की संचित निधि या राज्य के लोक लेखे मद्धे धन प्राप्त करना अथवा ऐसे धन की अभिरक्षा या उसका निर्गमन; या
(छ) उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय का आनुषंगिक कोई विषय।
(2) कोई विधेयक केवल इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा, कि वह जुर्मानों अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की माँग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण धन विधेयक नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है।
(3) यदि यह प्रश्न उठता है कि विधान परिषद वाले किसी राज्य के विधान-मंडल में पुरःस्थापित कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं तो उस पर उस राज्य की विधानसभा के अध्यक्ष का विनिश्चय अंतिम होगा।
(4) जब धन विधेयक अनुच्छेद 198 के अधीन विधान परिषद को पारेषित किया जाता है और जब वह अनुच्छेद 200 के अधीन अनुमति के लिए राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब प्रत्येक धन विधेयक पर विधानसभा के अध्यक्ष के हस्ताक्षर सहित यह प्रमाण पृष्ठांकित किया जाएगा कि वह धन विधेयक है।
- विधेयकों पर अनुमति –जब कोई विधेयक राज्य की विधानसभा द्वारा या विधान परिषद वाले राज्य में विधान-मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया है तब वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है अथवा वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है :
परंतु राज्यपाल अनुमति के लिए अपने समक्ष विधेयक प्रस्तुत किए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र उस विधेयक को, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो, सदन या सदनों को इस संदेश के साथ लौटा सकेगा कि सदन या दोनों सदन विधेयक पर या उसके किन्हीं विनिर्दिष्ट उपबंधों पर पुनर्विचार करें और विशि-टतया किन्हीं ऐसे संशोधनों के पुरःस्थापन की वांछनीयता पर विचार करें जिनकी उसने अपने संदेश में सिफारिश की है और जब विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब सदन या दोनों सदन विधेयक पर तदनुसार पुनर्विचार करेंगे और यदि विधेयक सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है और राज्यपाल के समक्ष अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है तो राज्यपाल उस पर अनुमति नहीं रोकेगा :
परंतु यह और कि जिस विधेयक से, उसके विधि बन जाने पर, राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का ऐसा अल्पीकरण होगा कि वह स्थान, जिसकी पूर्ति के लिए वह न्यायालय इस संविधान द्वारा परिकल्पित है, संकटापन्न हो जाएगा, उस विधेयक पर राज्यपाल अनुमति नहीं देगा, किंतु उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखेगा।
201. विचार के लिए आरक्षित विधेयक –जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख लिया जाता है तब राष्ट्रपति घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है या अनुमति रोक लेता है:
परंतु विधेयक धन विधेयक नहीं है वहाँ राष्ट्रपति राज्यपाल को यह निदेश दे सकेगा कि वह विधेयक को, यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों को ऐसे संदेश के साथ, जो अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक में वर्णित है, लौटा दे और जब कोई विधेयक इस प्रकार लौटा दिया जाता है तब ऐसा संदेश मिलने की तारीख से छह मास की अवधि के भीतर सदन या सदनों द्वारा उस पर तदनुसार पुनर्विचार किया जाएगा और यदि वह सदन या सदनों द्वारा संशोधन सहित या उसके बिना फिर से पारित कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति के समक्ष उसके विचार के लिए फिर से प्रस्तुत किया जाएगा।
वित्तीय विषयों के संबंध में प्रक्रिया
202. वार्षिक वित्तीय विवरण –(1) राज्यपाल प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के समक्ष उस राज्य की उस वर्ष के लिए प्राक्कलित प्राप्तियों और व्यय का विवरण रखवाएगा जिसे इस भाग ” वार्षिक वित्तीय विवरण” कहा गया है।
(2) वार्षिक वित्तीय विवरण में दिए हुए व्यय के प्राक्कलनों में —
(क) इस संविधान में राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय के रूप में वर्णित व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियाँ, और
(ख) राज्य की संचित निधि में से किए जाने के लिए प्रस्थापित अन्य व्यय की पूर्ति के लिए अपेक्षित राशियाँ, पृथक्-पृथक् दिखाई जाएँगी और राजस्व लेखे होने वाले व्यय का अन्य व्यय से भेद किया जाएगा।
(3) निम्नलिखित व्यय प्रत्येक राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय होगा, अर्थात् : —
(क) राज्यपाल की उपलब्धियाँ और भत्ते तथा उसके पद से संबंधित अन्य व्यय;
(ख) विधानसभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के तथा विधान परिषद वाले राज्य की दशा में विधान परिषद के सभापति और उपसभापति के भी वेतन और भत्ते;
(ग) ऐसे ऋण भार जिनका दायित्व राज्य पर है, जिनके अंतर्गत ब्याज, निक्षेप निधि भार और मोचन भार तथा उधार लेने और ऋण सेवा और ऋण मोचन से संबंधित अन्य व्यय हैं;
(घ) किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतनों और भत्तों के संबंध में व्यय;
(ङ) किसी न्यायालय या मापयस्थम् अधिकरण के निर्णय, डिक्री या पंचाट की तुष्टि के लिए अपेक्षित राशियाँ;
(च) कोई अन्य व्यय जो इस संविधान द्वारा या राज्य के विधान-मंडल द्वारा, विधि द्वारा, इस प्रकार भारित घोषित किया जाता है।
- विधान -मंडल में प्राक्कलनों के संबंध में प्रक्रिया–(1) प्राक्कलनों में से जितने प्राक्कलन राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय से संबंधित हैं वे विधानसभा में मतदान के लिए नहीं रखे जाएँगे, किन्तु इस खंड की किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह विधान-मंडल में उन प्राक्कलनों में से किसी प्राक्कलन पर चर्चा को निवारित करती है।
(2) उक्त प्राक्कलनों में से जितने प्राक्कलन अन्य व्यय से संबंधित हैं वे विधानसभा के समक्ष अनुदानों की मांगों के रूप में रखे जाएँगे और विधानसभा को शक्ति होगी कि वह किसी माँग को अनुमति दे या अनुमति देने से इंकार कर दे अथवा किसी माँग को, उसमें विनिर्दिष्ट रकम को कम करके, अनुमति दे।
(3) किसी अनुदान की माँग राज्यपाल की सिफारिश पर ही की जाएगी, अन्यथा नहीं। - विनियोग विधेयक –(1) विधानसभा द्वारा अनुच्छेद 203 के अधीन अनुदान किए जाने के पश्चात् यथाशक्य शीघ्र, राज्य की संचित निधि में से–
(क) विधानसभा द्वारा इस प्रकार किए गए अनुदानों की, और
(ख) राज्य की संचित निधि पर भारित, किन्तु सदन या सदनों के समक्ष पहले रखे गए विवरण में दर्शित रकम से किसी भी दशा में अनधिक व्यय की,
पूर्ति के लिए अपेक्षित सभी धनराशियों के विनियोग का उपबंध करने के लिए विधेयक पुरःस्थापित किया जाएगा।
(2) इस प्रकार किए गए किसी अनुदान की रकम में परिवर्तन करने या अनुदान के लक्ष्य को बदलने अथवा राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय की रकम में परिवर्तन करने का प्रभाव रखने वाला कोई संशोधन, ऐसे किसी विधेयक में राज्य के विधान-मंडल के सदन में या किसी सदन में प्रस्थापित नहीं किया जाएगा और पीठासीन व्यक्ति का इस बारे में विनिश्चय अंतिम होगा कि कोई संशोधन इस खंड के अधीन अग्राह्य है या नहीं।
(3) अनुच्छेद 205 और अनुच्छेद 206 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य की संचित निधि में से इस अनुच्छेद के उपबंधों के अनुसार पारित विधि द्वारा किए गए विनियोग के अधीन ही कोई धन निकाला जाएगा, अन्यथा नहीं।
205. अनुपूरक, अतिरिक्त या अधिक अनुदान –(1) यदि–
(क) अनुच्छेद 204 के उपबंधों के अनुसार बनाई गई किसी विधि द्वारा किसी विशिष्ट सेवा पर चालू वित्तीय वर्ष के लिए व्यय किए जाने के लिए प्राधिकृत कोई रकम उस वर्ष के प्रयोजनों के लिए अपर्याप्त पाई जाती है या उस वर्ष के वार्षिक वित्तीय विवरण में अनुध्यात न की गई किसी नई सेवा पर अनुपूरक या अतिरिक्त व्यय की चालू वित्तीय वर्ष के दौरान आवश्यकता पैदा हो गई है, या
(ख) किसी वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर उस वर्ष और उस सेवा के लिए अनुदान की गई रकम से अधिक कोई धन व्यय हो गया है,
तो राज्यपाल, यथास्थिति, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों के समक्ष उस व्यय की प्राक्कलित रकम को दर्शित करने वाला दूसरा विवरण रखवाएगा या राज्य की विधानसभा में ऐसे आधिक्य के लिए माँग प्रस्तुत करवाएगा।
(2) ऐसे किसी विवरण और व्यय या माँग के संबंध में तथा राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय या ऐसी माँग से संबंधित अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में भी, अनुच्छेद 202, अनुच्छेद 203 और अनुच्छेद 204 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण और उसमें वर्णित व्यय के संबंध में या किसी अनुदान की किसी माँग के संबंध में और राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय या अनुदान की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं।
206. लेखानुदान, प्रत्ययानुदान और अपवादानुदान –(1) इस अध्याय के पूर्वगामी उपबंधों में किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य की विधानसभा को —
(क) किसी वित्तीय वर्ष के भाग के लिए प्राक्कलित व्यय के संबंध में कोई अनुदान, उस अनुदान के लिए मतदान करने के लिए अनुच्छेद 203 में विहित प्रक्रिया के पूरा होने तक और उस व्यय के संबंध में अनुच्छेद 204 के उपबंधों के अनुसार विधि के पारित होने तक, अग्रिम देने की;
(ख) जब किसी सेवा की महत्ता या उसके अनिश्चित रूप के कारण माँग ऐसे ब्यौरे के साथ वर्णित नहीं की जा सकती है जो वार्षिक वित्तीय विवरण में सामान्यतया दिया जाता है तब राज्य के संपत्ति स्रोतों पर अप्रत्याशित माँग की पूर्ति के लिए अनुदान करने की ;
(ग) किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का जो अनुदान भाग नहीं है ऐसा कोई अपवादानुदान करने की,
शक्ति होगी और जिन प्रयोजनों के लिए उक्त अनुदान किए गए हैं उनके लिए राज्य की संचित निधि में से धन निकालना विधि द्वारा प्राधिकृत करने की राज्य के विधान-मंडल को शक्ति होगी।
(2) खंड (1) के अधीन किए जाने वाले किसी अनुदान और उस खंड के अधीन बनाई जाने वाली किसी विधि के संबंध में अनुच्छेद 203 और अनुच्छेद 204 के उपबंध वैसे ही प्रभावी होंगे जैसे वे वार्षिक वित्तीय विवरण में वर्णित किसी व्यय के बारे में कोई अनुदान करने के संबंध में और राज्य की संचित निधि में से ऐसे व्यय की पूर्ति के लिए धन का विनियोग प्राधिकृत करने के लिए बनाई जाने वाली विधि के संबंध में प्रभावी हैं।
207. वित्त विधेयकों के बारे में विशेष उपबंध –(1) अनुच्छेद 199 के खंड (1) के उपखंड (क) से उपखंड (च) में विनिर्दिष्ट किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला विधेयक या संशोधन राज्यपाल की सिफारिश से ही पुरःस्थापित या प्रस्तावित किया जाएगा, अन्यथा नहीं और ऐसा उपबंध करने वाला विधेयक विधान परिषद में पुरःस्थापित नहीं किया जाएगा:
परंतु किसी कर के घटाने या उत्सादन के लिए उपबंध करने वाले किसी संशोधन के प्रस्ताव के लिए इस खंड के अधीन सिफारिश की अपेक्षा नहीं होगी।
(2) कोई विधेयक या संशोधन उक्त विषयों में से किसी विषय के लिए उपबंध करने वाला केवल इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह जुर्मानों या अन्य धनीय शास्तियों के अधिरोपण का अथवा अनुज्ञप्तियों के लिए फीसों की या की गई सेवाओं के लिए फीसों की माँग का या उनके संदाय का उपबंध करता है अथवा इस कारण नहीं समझा जाएगा कि वह किसी स्थानीय प्राधिकारी या निकाय द्वारा स्थानीय प्रयोजनों के लिए किसी कर के अधिरोपण, उत्सादन, परिहार, परिवर्तन या विनियमन का उपबंध करता है।
(3) जिस विधेयक को अधिनियमित और प्रवर्तित किए जाने पर राज्य की संचित निधि में से व्यय करना पड़ेगा वह विधेयक राज्य के विधान-मंडल के किसी सदन द्वारा तब तक पारित नहीं किया जाएगा जब तक ऐसे विधेयक पर विचार करने के लिए उस सदन से राज्यपाल ने सिफारिश नहीं की है।
साधारणतया प्रक्रिया
- प्रक्रिया के नियम –(1) इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल का कोई सदन अपनी प्रक्रिया और अपने कार्य संचालन के विनियमन के लिए नियम बना सकेगा।
(2) जब तक खंड (1) के अधीन नियम नहीं बनाए जाते हैं तब तक इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले तत्स्थानी प्रांत के विधान-मंडल के संबंध में जो प्रक्रिया के नियम और स्थायी आदेश प्रवृत्त थे वे ऐसे उपांतरणों और अनुकूलनों के अधीन रहते हुए उस राज्य के विधान-मंडल के संबंध में प्रभावी होंगे जिन्हें, यथास्थिति, विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति उनमें करे।
(3) राज्यपाल, विधान परिषद वाले राज्य में विधानसभा के अध्यक्ष और विधान परिषद के सभापति से परामर्श करने के पश्चात्, दोनों सदनों में परस्पर संचार से संबंधित प्रक्रिया के नियम बना सकेगा। - राज्य के विधान -मंडल में वित्तीय कार्य संबंधी प्रक्रिया का विधि द्वारा विनियमन–किसी राज्य का विधान-मंडल, वित्तीय कार्य को समय के भीतर पूरा करने के प्रयोजन के लिए किसी वित्तीय विषय से संबंधित या राज्य की संचित निधि में से धन का विनियोग करने के लिए किसी विधेयक से संबंधित, राज्य के विधान-मंडल के सदन या सदनों की प्रक्रिया और कार्य संचालन का विनियमन विधि द्वारा कर सकेगा तथा यदि और तक इस प्रकार बनाई गई किसी विधि का कोई उपबंध अनुच्छेद 208 के खंड (1) के अधीन राज्य के विधान-मंडल के सदन या किसी सदन द्वारा बनाए गए नियम से या उस अनुच्छेद के खंड (2) के अधीन राज्य विधान-मंडल के संबंध में प्रभावी किसी नियम या स्थायी आदेश से असंगत है तो और वहां तक ऐसा उपबंध अभिभावी होगा।
- विधान -मंडल में प्रयोग की जाने वाली भाषा–(1) भाग 17 में किसी बात के होते हुए भी, किन्तु अनुच्छेद 348 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राज्य के विधान-मंडल में कार्य राज्य की राजभाषा या राजभाषाओं में या हिंदी में या अंग्रेजी में किया जाएगा :
परंतु, यथास्थिति, विधानसभा का अध्यक्ष या विधान परिषद का सभापति अथवा उस रूप में कार्य करने वाला व्यक्ति किसी सदस्य को, जो पूर्वोक्त भाषाओं में से किसी भाषा में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुज्ञा दे सकेगा।
(2) जब तक राज्य का विधान-मंडल विधि द्वारा अन्यथा उपबंध न करे तब तक इस संविधान के प्रारंभ से पंद्रह वर्ष की अवधि की समाप्ति के पश्चात् यह अनुच्छेद ऐसे प्रभावी होगा मानो ” या अंग्रेजी में” शब्दों का उसमें से लोप कर दिया गया होः
1[परंतु 2[हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा राज्यों के विधान-मंडलों] के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले ” पंद्रह वर्ष” शब्दों के स्थान पर ” पच्चीस वर्ष” शब्द रख दिए गए हों :
3[परंतु यह और कि 4-5[अरुणाचल प्रदेश, गोवा और मिजोरम राज्यों के विधान-मंडलों के संबंध में यह खंड इस प्रकार प्रभावी होगा मानो इसमें आने वाले ” पंद्रह वर्ष” शब्दों के स्थान पर ” चालीस वर्ष” शब्द रख दिए गए हों।]
- विधान-मंडल में चर्चा पर निर्बंधन –उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए, आचरण के विषय में राज्य के विधान-मंडल में कोई चर्चा नहीं होगी।
- न्यायालयों द्वारा विधान-मंडल की कार्यवाहियों की जाँच न किया जाना –(1) राज्य के विधान-मंडल की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।
(2) राज्य के विधान-मंडल का कोई अधिकारी या सदस्य, जिसमें इस संविधान द्वारा या इसके अधीन उस विधान-मंडल में प्रक्रिया या कार्य संचालन का विनियमन करने की अथवा व्यवस्था बनाए रखने की शक्तियाँ निहित हैं, उन शक्तियों के अपने द्वारा प्रयोग के विषय में किसी न्यायालय की अधिकारिता के अधीन नहीं होगा।
1 हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1970 (1970 का 53) की धारा 46 द्वारा (25-1-1971 से) अंतःस्थापित।
2 पूर्वोत्तर क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम, 1971 (1971 का 81) की धारा 71 द्वारा (21-1-1972 से) ” हिमाचल प्रदेश राज्य के विधान-मंडल” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
3 मिजोरम राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 34) की धारा 39 द्वारा (20-2-1987 से)
अंतःस्थापित।
4 अरुणाचल प्रदेश राज्य अधिनियम, 1986 (1986 का 69) की धारा 42 द्वारा (20-2-1987 से) ” मिजोरम राज्य के विधान-मंडल” के स्थान पर प्रतिस्थापित।
5 गोवा, दमण और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 (1987 का 18) की धारा 63 द्वारा (30-5-1987 से) ” अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम” के स्थान पर प्रतिस्थापित। Next